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लोकतंत्र में दलीय व्यवस्था महत्त्व एवं विशेषताएँ

लोकतंत्र में दलीय व्यवस्था का महत्त्व

वर्तमान में शासन के अनेक रूप देखने को मिलते हैं जिनमें प्रजातन्त्र सबसे अधिक लोकप्रिय है। इसके दो रूप हैं- (1) प्रत्यक्ष प्रजातन्त्र, (2) अप्रत्यक्ष प्रजातन्त्र अथवा प्रतिनिध्यात्मक प्रजातंत्र। राज्यों की जनसंख्या की अतिवृद्धि और क्षेत्र की विशालता के कारण वर्तमान समय में विश्व के लगभग सभी राज्यों में प्रतिनिध्यात्मक शासन व्यवस्था ही प्रचलित है। इस शासन व्यवस्था में जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है और इन प्रतिनिधियों द्वारा शासन व्यवस्था के संचालन की इस प्रक्रिया को पूर्ण करने के लिए राजनीतिक दलों का अस्तित्व अनिवार्य है।

प्रजातंत्र शासन व्यवस्था लोकमत पर आधारित है और राजनीतिक दल लोकमत के निर्माण और उसकी अभिव्यक्ति के महत्त्वपूर्ण साधन होते हैं। प्रजातन्त्रीय शासन में केवल शासक दल का ही नहीं वरन् विरोधी दल का भी महत्त्व होता है। विरोधी दल शासन करने वाले राजनीतिक दल को मर्यादित तथा नियंत्रित रखने का कार्य करते हैं। इस तरह कह सकते हैं आधुनिक राजनीतिक जीवन के लिए दलीय संगठनों का बड़ा महत्त्व है। इसके बिना लोकतंत्र की सफलता सम्भव नहीं है। अत: बर्क ने ठीक ही कहा है कि "दल अपनी लोकतंत्रात्मक व्यवस्था के लिए अपरिहार्य है।" अन्त में कह सकते हैं कि प्रजातंत्र के लिए राजनीतिक दल एवं दलीय व्यवस्था निम्न कारणों से महत्त्वपूर्ण हैं-

(1) जनता में राजनीतिक चेतना जागृत करना।

(2) जनप्रतिनिधित्व करना।

(3) जनता की शिकायतों को सरकार तक पहुँचाना।

(4) सरकार बनाना।

(5) सरकार की नीतियों की आलोचना करना।

(6) राष्ट्रीय चेतना जागृत करना।

(7) योग्य लोगों की शासन में भागीदारी।

(8) बड़े चुनाव क्षेत्रों के लिए उपयोगी।

(9) नव स्थापित प्रजातंत्रों के लिये श्रेष्ठ आदि।

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लोकतंत्र में दलीय व्यवस्था महत्त्व एवं विशेषताएँ

संक्षेप में यह कह सकते हैं कि भारत में संसदीय व्यवस्था में तथा लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में उपर्युक्त कारणों के रूप में राजनीतिक दलों तथा दलीय व्यवस्था की अहम एवं महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।

भारतीय दलीय प्रणाली की विशेषताएँ

भारतीय दलीय प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

1. बहुदलीय व्यवस्था-

भारत में बहुदलीय पद्धति है। 15वीं लोकसभा में 20 से अधिक और राज्यों की विधानसभाओं में 50 से अधिक राजनीतिक दल थे। भारत की बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था में 1988 तक लगभग सदैव ही किसी एक राजनैतिक दल की प्रधानता की स्थिति रही, परन्तु 1989 से लेकर वर्तमान 25 मई, 2014 तक किसी एक राजनीतिक दल या गठबन्धन की प्रधानता की स्थिति नहीं रही। 26 मई, 2014 (16वीं लोकसभा) तथा 30 मई, 2019 (17वीं लोकसभा) ने दल व्यवस्था का रूप एकदलीय व्यवस्था में परिवर्तित कर दिया लेकिन बहुदलीय व्यवस्था का जो रूप है, उसके कारण लोकसभा चुनाव में खण्डित जनादेश ही मिल पाता है। ऐसी स्थिति में मिली-जुली सरकार का ही गठन हो पाता है। 2014 में सम्पन्न 16वीं लोकसभा चुनावों से ठीक पहले देश में कुल 1687 राजनीतिक दल थे और 464 दलों ने चुनावों में भाग लिया। जुलाई 2015 में देश में कुल मिलाकर दलों की संख्या 1866 हो गई थी।

2. राजनीतिक दलों में बिखराव, विभाजन तथा दलीय व्यवस्था में अस्थायित्व-

भारतीय राजनीतिक दलों में बिखराव, विभाजन और अस्थायित्व की स्थिति बनी हुई है; यथा-

(i) सर्वप्रमुख राजनीतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 1969 ई. में विभाजन हुआ तथा पुनः इसका विभाजन 1978 में हुआ और कांग्रेस (इ) का जन्म हुआ एवं इसका विभाजन 1995 और 1999 में हुआ।

(ii) 1977 में सत्तारूढ़ जनता पार्टी कालान्तर में चार भागों में विभक्त हो गई।

(iii) विभाजन तथा विलय की प्रक्रियास्वरूप 1988 में जनता दल की स्थापना हुई जिसने कुछ समय के लिए एक बड़ी राजनीतिक शक्ति का रूप धारण कर लिया।

परन्तु नवम्बर, 1990 में जनता दल में विभाजन हुआ और तब से जनता दल में बिखराव और विभाजन की प्रक्रिया निरन्तर जारी है।

स्थिति यह है कि आज एक राजनीतिक दल जन्म लेता है, कल उसमें टूटन, समाप्ति या अन्य किसी दल में विलय की स्थिति पैदा हो जाती है। इस तरह राजनीतिक दलों में कोई स्थायित्व नहीं है।

3. आन्तरिक लोकतन्त्र और अनुशासन का अभाव-

भारतीय राजनीतिक दलों में प्रायः आन्तरिक लोकतन्त्र का अभाव है और वे अनुशासनहीनता से पीड़ित हैं। भारत में राजनीतिक दलों का निर्माण किन्हीं प्रक्रियाओं, मर्यादाओं, सिद्धान्तों या कानूनों के आधार पर नहीं होता है और न ही दलों के आय-व्यय का लेखा-जोखा सदस्यों के सामने प्रस्तुत किया जाता है।

1995-2019 ई. के वर्षों में चुनाव आयोग तथा सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीतिक दलों की समस्त कार्यप्रणाली को व्यवस्थित करने के कुछ प्रयत्न किये हैं, किन्तु स्थिति में मूल सुधार तो राजनीतिक दलों द्वारा ही किया जा सकता है।

4. संख्या बल की दृष्टि से शक्तिशाली लेकिन विभाजित विपक्ष-

नवीं लोकसभा से लेकर 15वीं लोकसभा चुनावों ने विपक्ष को संख्या बल की दृष्टि से शक्तिशाली बनाया है। लेकिन 16वीं लोकसभा में विपक्ष बहुत कमजोर स्थिति में है। नवीं लोकसभा में कांग्रेस (इ) तथा 10वीं और 11वीं लोकसभा में भाजपा को मुख्य विपक्षी दल की स्थिति प्राप्त थी। 12वीं और 13वीं लोकसभा में पुन: कांग्रेस प्रमुख विपक्षी दल की स्थिति में रही। 15वीं लोकसभा में राजग प्रमुख विपक्षी दल की भूमिका में रहा है। राज्य स्तर पर भी अधिकांश राज्यों में विपक्ष पर्याप्त शक्तिशाली है। परन्तु यह शक्तिशाली विपक्ष भी विभाजित होने की कमजोरी के कारण निर्बल बना हुआ है। विपक्ष की इसी विभाजित स्थिति के कारण अप्रैल, 1999 में विपक्ष ने वाजपेयी सरकार तो गिरा दी, लेकिन वह देश को वैकल्पिक सरकार नहीं दे पाया। 16वीं लोकसभा (2014) एवं 17वीं लोकसभा (2019) में तो विपक्ष को विपक्ष में बैठने हेतु भी संख्या प्रदान नहीं थी।

5. आन्तरिक गुटबन्दी-

जनता दल, कांग्रेस, भाजपा और अन्य भारतीय राजनीतिक दल आन्तरिक गुटबन्दी के शिकार हैं। लगभग सभी राजनीतिक दलों में छोटे-छोटे गुट पाये जाते हैं- एक वह गुट जो सत्ता या संगठन के पदों पर आसीन है तथा दूसरा असन्तुष्ट गुट। इन गुटों में पारस्परिक मतभेद विद्यमान रहते हैं। कांग्रेस और भाजपा सहित सभी राजनीतिक दलों की यही स्थिति है। विशिष्ट विचारधारा पर आधारित मार्क्सवादी दल और अन्य वामपंथी दल भी गुटबन्दी से मुक्त नहीं हैं। दलों में आन्तरिक गुटबन्दी की यह स्थिति भारतीय राजनीति का अभिशाप बनी हुई है।

6. छोटे दलों का स्वरूप दबाव समूह जैसा-

भारत में कुछ राजनीतिक दल आकार और विस्तार में छोटे और सीमित तथा प्रभाव की दृष्टि से कमजोर हैं। ये दल किसी बड़े दल के साथ मिलकर और उस दल के किन्हीं गुटों से सम्पर्क स्थापित करके अपने उद्देश्य की पूर्ति करवाने अथवा उस दल से अपनी नीति एवं इच्छानुसार कार्य करवाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।

7. दलों की नीतियों व कार्यक्रमों में स्पष्ट भेद का अभाव-

भारत के राजनीतिक दलों की नीतियों एवं कार्यक्रमों में स्पष्ट भेद का अभाव है। विचारधारा, लोकहित, विदेश नीति, राष्ट्रीय हित आदि के साथ सभी दल समझौता कर रहे हैं। कांग्रेस गैर-भाजपावाद में राष्ट्रीय जनता दल के नजदीक आई है। भाजपा भी अपने संकीर्ण वैचारिक दायरे से बाहर निकली है और वह सत्ता प्राप्त करने के लिए ऐसे क्षेत्रीय दलों के निकट आई है जो वैचारिक दृष्टि से उसके विपरीत हैं, जैसे- अन्ना द्रमुक, तेलगुदेशम्, एकीकृत जनता दल, बीजू जनता दल आदि। इस प्रक्रिया में हो सकता है कि क्षेत्रीय दलों की संकीर्णता कम हो और उनका दृष्टिकोण भी राष्ट्रव्यापी बन सके।

8. क्षेत्रीय दलों की शक्ति में वृद्धि-

मार्च, 1977 के चुनावों के समय यह आशा बंधी थी कि भारत में साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय दल महत्त्वहीन हो जायेंगे, परन्तु आशा पूरी नहीं हो सकी 1989 के बाद से भारतीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव बढ़ा है। वे अपने राज्यों में सत्तासीन होने के साथ-साथ केन्द्र की संविद सरकारों में भी शामिल हो रहे हैं और अपने हितों के लिए केन्द्र सरकार के साथ सौदेबाजी कर रहे हैं।

ग्यारहवीं लोकसभा में क्षेत्रीय दलों ने जहाँ 125 स्थान प्राप्त किये थे, वहाँ 12वीं तथा 13वीं लोकसभा में इनके स्थानों की संख्या बढ़कर क्रमश: 170 और 190 हो गई। 14वीं लोकसभा में इनकी संख्या 171 थी। इस तरह क्षेत्रीय दलों या गुटों ने भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में निर्णयकारी स्थिति प्राप्त कर ली है। 15वीं लोकसभा में भी क्षेत्रीय दलों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। इनकी संख्या पहले से कुछ कम, 158 है। लेकिन 16वीं लोकसभा (2014) एवं 17वीं लोकसभा (2019) के चुनाव परिणाम क्षेत्रीय दलों के लिए उत्साहवर्धक नहीं रहे।

9. दलों में जातिवादी नेतृत्व का बढ़ता प्रभाव

1990 के पश्चात् से भारत के सभी राजनीतिक दलों में पिछड़ी जातियों का प्रभाव क्षेत्र बढ़ा है और अगड़ी जातियों का प्रभाव क्षेत्र घटा है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीतिक दलों में जातिवादी नेतृत्व' बढ़ा है। अब सम्पन्नता, योग्यता, दलीय निष्ठा के साथ-साथ जातिगत प्रभाव' भी नेतृत्व की एक योग्यता बन गयी है। वर्तमान संसद का स्वरूप सवर्ण जातियों के घटते वर्चस्व और पिछड़ी जातियों के बढ़ते वर्चस्व का परिचायक है।

10. राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं की कथनी और करनी में भारी अन्तर-

भारत के राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की कथनी और करनी में भारी अन्तर देखा गया है। ये सभी नेता सिर्फ सत्ता के प्रति समर्पित हैं। इनमें ईमानदारी का घोर अभाव है। फलतः ये सभी जनता में विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं। यह एक चिन्ताजनक स्थिति है।

11. राजनीतिक दलों में अन्तहीन अवसरवादिता और अपराधी तत्त्वों की घुसपैठ-

पिछड़े डेढ़ दशक से भारत के राजनीतिक दलों में विद्यमान अवसरवादिता सभी सीमाएँ पार कर गई हैं। उम्मीदवारों के चयन में केवल व्यक्ति के जीतने के अवसर पर ध्यान दिया जाता है तथा ऐसे में संकुचित दृष्टि, धनबल और भुजबल के धनी अपराधी तत्त्वों पर जाकर टिक जाती है। राजनीतिक दलों द्वारा व्यावहारिक राजनीति में अपराधी तत्त्वों को उम्मीदवार बनाने, उन्हें मन्त्रिपरिषदों तक में स्थान देने और सभी प्रकार से उन्हें गले लगाने में कोई संकोच नहीं किया जाता। तभी तथाकथित राष्ट्रीय दलों में यह स्थिति है और इस प्रसंग में क्षेत्रीय दल तो राष्ट्रीय दलों से आगे हैं। भारतीय राजनीति की यह घोर विकृति और चिन्ताजनक स्थिति है।

12. अनेक दलों का आधार साम्प्रदायिकता एवं क्षेत्रीयता

भारत में अनेक राजनीतिक दलों का आधार साम्प्रदायिकता और क्षेत्रीयता है, जैसे- अकाली दल, डी.एम.के., ए.डी.एम.के., हिंदू महासभा, मुस्लिम लीग, मुस्लिम मजलिस, नागालैण्ड लोकतान्त्रिक दल, मणिपुर पीपुल्स पार्टी, तेलगूदेशम, शिव सेना आदि। 1989 से क्षेत्रीय दलों का राजनीतिक प्रभाव बढ़ता गया, 1996 और 1998 में निर्मित अल्पमत साझा सरकारें क्षेत्रीय दलों के प्रभुत्व का प्रमाण हैं।

13. वंशानुगत नेतृत्व की प्रवृत्ति-

भारत के लगभग सभी राजनीतिक दलों में निर्वाचित नेता की नहीं, वरन् चयनित नेता की स्थिति है तथा नेता के चयन में परिवारवाद हावी है। कांग्रेस में नेता का उत्तराधिकार वंशानुगत बना हुआ है। अधिकांश राजनीतिक दलों में उत्तराधिकारी के रूप में वही दिखाई दे रहा है जो सर्वोच्च नेता के परिवार से जुड़ा है। बसपा मायावती के व्यक्तित्व पर केन्द्रित है। इसी प्रकार राजद तथा सपा क्रमशः लालू और मुलायम तथा उनके पारिवारिक घेरे में हैं। इसी प्रकार, शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी, नेशनल कांफ्रेन्स, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, द्रमुक, अन्ना द्रमुक आदि सभी दल परिवारवाद से ग्रसित है। राजनीति का सारा खेल एक पुश्तैनी व्यापार और एक जागीर बन गया हैं।

राजनीतिक दलों में छाई 'मैं और मेरा परिवार' की यह प्रवृत्ति देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था को गहरे ग्रहण की तरह घेरे हुए है। 16वीं एवं 17वीं लोकसभा (2019) में भी बड़ी संख्या में राजनीतिक परिवारों से जुड़े उम्मीदवार चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुँचे हैं।

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