राष्ट्रीय एकीकरण
राष्ट्रीय एकीकरण से
अभिप्राय-
"राजनीतिक विकास की बुनियादी समस्या एकीकरण की है, अर्थात् नये राजनीतिक केन्द्र बिन्दु की स्थापना और दृढ़ीकरण उनका बहुमुखी विकास, विभिन्न संस्थाओं का पल्लवन, विविधता को एक सूत्र में संग्रहण करके एक राष्ट्र का निर्माण अर्थात् एकीकरण करने की क्षमता का विकास करना ही राष्ट्रीय एकीकरण है।" -रजनी कोठारी
भारतीय दृष्टिकोण से
राष्ट्रीय एकीकरण का अर्थ है "विविधताओं में एकता की स्थापना करना"।
इसका मतलब है- भाषायी,
क्षेत्रीय, साम्प्रदायिक, वर्गीय, जातीय
आदि के संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय स्तर पर सोचने और कार्य करने की
क्षमता और दृष्टिकोण का विकास करना राष्ट्रीय एकीकरण कहलाता है।
दूसरे शब्दों में, भारतीय दृष्टिकोण में राष्ट्रीय एकीकरण का अर्थ, विविधता में एकता जिसमें
भाषायी, क्षेत्रीय,
साम्प्रदायिक, वर्गीय, जातीय
आदि संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय स्तर पर सोचने व कार्य करने की
क्षमता और इच्छा हो।
मायरन वीनर ने राष्ट्रीय एकीकरण को
परिभाषित करते हुए कहा है कि, "राष्ट्रीय एकीकरण का अर्थ है, उन
पृथक्कतावादी आन्दोलनों की ओर ध्यान देना, जो राष्ट्र को छोटे-छोटे
विरोधी राज्यों में विभाजित करते हैं, अर्थात् समाज में ऐसे विचार
भी विद्यमान हों,
जो संकीर्ण हितों के स्थान पर राष्ट्रीय और सार्वजनिक हितों
को प्राथमिकता देते हैं।"
डॉ. एम. राधाकृष्णन के
शब्दों में,
"राष्ट्रीय एकीकरण एक विचार है जो लोगों के मस्तिष्क में
रहता है। यह चेतना है जो लोगों को सामूहिक रूप से सचेत करती है।"
राष्ट्रीय एकीकरण के समक्ष उपस्थित चुनौतियाँ/समस्याएँ
भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के
समक्ष मुख्य रूप से निम्न चुनौतियाँ उपस्थित हैं, जिनका समाधान
करना आवश्यक है-
1. जातिवाद की
समस्या-
जाति भारतीय राजनीति का एक प्रमुख
निर्धारक तत्त्व है। वर्तमान में सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक ढाँचे
का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसे जातिवाद ने आच्छादित न किया हो; जबकि
सामाजिक आदतें तथा परम्परायें जातिवाद पर आधारित होती हैं, तथापि
निर्वाचन में भी उम्मीदवारों का चयन जाति को ध्यान में रखकर किया जाता है, गैर-कानूनी
होते हुए भी जाति के आधार पर मतदाताओं से अपील की जाती है, प्रशासन
में भी जातीय आकर्षण,
भाई-भतीजावाद अत्यधिक है। भारत में जाति और राजनीति
परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित रह कर एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। राजनीति
में जमने के लिए शक्ति की आवश्यकता होती है। शक्ति के लिए संगठनों का सहारा लेना
पड़ता है और जाति संरचना स्वयं में एक शक्तिशाली संगठन है इसलिए राजनीति को जाति
का सहारा लेना पड़ता है।
राष्ट्रीय एकीकरण |
भारत के भिन्न-भिन्न समुदायों में जाति पर आधारित
आरक्षण नीति ने सद्भावना का विकास नहीं किया, बल्कि जातीय कटुता को जन्म
दिया है। इसने सम्प्रदाय-सम्प्रदाय के बीच, सवर्ण-असवर्ण के बीच तथा
वर्ग-वर्ग के बीच आग भभका दी है। वोट बैंक की राजनीति' ने आरक्षण
नीति का दुरुपयोग करके स्थिति को और बिगाड़ दिया है। जाति आधारित आरक्षण
ने साम्प्रदायिक सद्भाव तथा राष्ट्रीय एकीकरण की नीति को भी प्रभावित किया है। इस
प्रकार स्वाधीनता के समय जिस साम्प्रदायिक सद्भाव की परिकल्पना की गई थी, वह
गलत सिद्ध हुई और आज स्वतन्त्रता के पाँच दशकों पश्चात् जाति व्यवस्था का भारतीय
राजनीति से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो चुका है। जाति के राजनीति पर प्रभाव
के कारण ही 'जाति का राजनीतिकरण'
या 'राजनीति में जातिवाद' जैसे
शब्द प्रचलित हैं।
2. क्षेत्रवाद की
समस्या-
भारतीय राजनीति में क्षेत्रवाद
की भावना राज्य की तुलना में किसी क्षेत्र विशेष के प्रति लगाव को प्रदर्शित करती
है। क्षेत्रवाद आज भारत के राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन में अत्यन्त व्यापक
घटना है और निकट भविष्य में भारतीय राजनीति में इस प्रवृत्ति से
मुक्ति के कोई चिह्न नहीं दिखाई दे रहे हैं।
डॉ. इकबाल नारायण के
शब्दों में, क्षेत्रवाद की प्रक्रिया कई आयामों वाली, एक अत्यन्त जटिल तथा मिश्रित
व्यवस्था है जो एक साथ ही एक समय में भौगोलिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक
एवं मनोवैज्ञानिक रूप लिए हुए है।" उन्होंने भारत में क्षेत्रवाद के उदय को
स्पष्ट करते हुए लिखा है कि क्षेत्रवाद के उदय की जड़ें नागरिकों के मस्तिष्क में
हैं। हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में दोहरे व्यक्तित्व को प्रस्तुत करता है और
उसमें उपराष्ट्रवादी तथा राष्ट्रवादी दोनों ही प्रवृत्तियाँ पाई
जाती हैं। उपराष्ट्रवादी प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से राष्ट्रवादी प्रवृत्ति
से पहले आती है। भारत की राजनीतिक व्यवस्था तथा विकास की प्रक्रिया में यह एक
अपरिहार्य तथ्य है। कई बार यह प्रक्रिया अत्यन्त गम्भीर रूप धारण कर लेती है और
इसका प्रयोग पृथकतावादी अथवा देश के अहित में किया जाने लगता है।
नागालैण्ड तथा मिजोरम दोनों क्षेत्रों में अलग होने के आन्दोलन, गोरखालैण्ड
की माँग का आन्दोलन,
असम में बोडो आन्दोलन, पंजाब में खालिस्तान
की माँग और आतंकवाद की भयानकता, जम्मू-कश्मीर में समय-समय पर लगने वाले
स्वतन्त्रता के नारे आदि क्षेत्रवाद की प्रवृत्ति का विकृत रूप हैं, जो
अहितकर है, लेकिन सामान्य रूप से क्षेत्रवाद की भावना एवं प्रक्रिया पृथकतावाद से अलग है।
इसका वास्तविक सम्बन्ध क्षेत्र-विशेष (समुदाय विशेष) के लिए आर्थिक सुविधाएँ
प्राप्त करने के लिए दबाव डालने से है। दूसरे शब्दों में, वह
राजनीतिक सत्ता में भागीदारी पाने का एक साधन है।
3. भाषावाद की
समस्या-
भाषा विचार एवं अभिव्यक्ति का प्रमुख
साधन है, लेकिन वर्तमान समय में भाषा ने राजनीतिक रूप धारण कर लिया है जिससे
विभिन्न राज्यों के मध्य विवाद बढ़े हैं। भारत का प्रत्येक क्षेत्र अपनी भाषा को
दूसरे क्षेत्र की संस्कृति,
लिपि तथा भाषा से श्रेष्ठ समझता है। भाषा के प्रश्न
ने उत्तर-दक्षिण के राज्यों में हिंसक आन्दोलन को जन्म दिया- इसी कारण राष्ट्रीय
एकता व अखण्डता के लिए यह हानिकारक सिद्ध हुआ है।
इस तरह भारतीय राष्ट्रीयता के समक्ष शिक्षा केन्द्रों व प्रशासनिक
सेवाओं में क्षेत्रीय भाषाओं की अनिवार्यता एक प्रमुख बाधा है; क्योंकि
इससे देश योग्यतम नागरिकों की सेवाओं से वंचित रह जाता है और नागरिकों के एक-दूसरे
राज्य में आदान-प्रदान में रुकावट पैदा होती है। भारत में भाषावार राज्यों
की पुनर्गठन की प्रक्रिया में 29 राज्यों का निर्माण हो चुका है। गोरखालैण्ड
आन्दोलन इसी का उदाहरण है। भाषा के आधार पर जो पृथकतावाद धीरे-धीरे पनप रहा
है, उसे रोका जाना चाहिए।
4. अलगाववाद/पृथक्तावाद
की समस्या-
क्षेत्रीयतावाद की राजनीति कभी-कभी
भारतीय संघ से किसी राज्य के पृथक् होने की माँग को लेकर आगे आती है तथा कभी संघ
के अन्तर्गत ही एक नवीन राज्य के निर्माण की बात करती है तो यह पृथकतावाद
को जन्म देती है;
यथा-
(i) स्वतन्त्र द्रविड़नाद गणराज्य की स्थापना की माँग- सबसे पहले डी.एम.के. दल ने तमिल भाषा-भाषी स्वतन्त्र तमिलनाडु राज्य
की माँग की। बाद में दक्षिण के चार राज्यों (मद्रास, आन्ध्र, केरल
और मैसूर) को मिलाकर भारत संघ से पृथक् एक स्वतन्त्र द्रविड़नाद गणराज्य की
स्थापना की माँग रखी।
पं. नेहरू ने इस पृथक्तावादी माँग का
कठोर शब्दों में विरोध किया और अक्टूबर, 1963 में 16वाँ संविधान
संशोधन अधिनियम पारित करवाया जिसमें संसद तथा विधानमण्डलों के
प्रतिनिधियों,
न्यायाधीशों के लिए संविधान की रक्षा करने तथा भारत
की सम्प्रभुता व अखण्डता बनाए रखने की शपथ लेना अनिवार्य कर दिया गया। फलस्वरूप डी.एम.के.
ने भारतीय संघ से पृथक्ता की माँग छोड़ दी और राज्य के लिए अधिक स्वायत्तता पर बल
देना प्रारम्भ कर दिया।
(ii) जम्मू-कश्मीर में बढ़ते अलगाववाद की
प्रवृत्तियाँ- जम्मू-कश्मीर राज्य में काफी समय से अलगाववादी आन्दोलन चल
रहा है। अलगाववादी आन्दोलन के चलते 1987 से ही यहाँ आतंकवाद की
स्थिति बनी हुई है। यहाँ के आतंककारी पाकिस्तान, पश्चिम एशिया के
इस्लामिक देशों तथा अमरीका जैसी महाशक्ति से शह पाते हैं। यहाँ के आतंककारी स्वयं
में ही बुरी तरह बँटे हुए हैं। कुछ संगठन सार्वभौम कश्मीर राज्य की कल्पना करते हैं
तो कुछ बहुमत के आधार पर पाकिस्तान का एक हिस्सा बनाना चाहते हैं।
इस क्षेत्र में प्रमुख रूप से तीन संगठन आतंकवादी कार्यों
में संलग्न हैं। ये हैं- जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रन्ट (JKLF), कश्मीर लिबरेशन आर्मी (KLA), हिजबुल मुजाहिदीन एवं जमाते
तुबला। जम्मू-कश्मीर में जारी वर्तमान आतंकवाद 'पाक-प्रायोजित' आतंकवाद है तथा इस आतंकवाद के अन्तर्गत सन् 1999 में करगिल
में पाकिस्तान सेना द्वारा घुसपैठ की गई। सन् 2001 के मध्य में पहले तो
जम्मू-कश्मीर विधानसभा पर आतंकी हमला किया गया और उसके पश्चात् 13 दिसम्बर, 2001
को भारतीय संसद पर दुस्साहसिक आतंकवादी हमला किया गया। इसके अतिरिक्त ये आतंकवादी
आए दिन नरसंहार की कार्यवाही करते रहते हैं।
पाकिस्तान अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के समक्ष जम्मू-कश्मीर की
इन आतंकवादी कार्यवाहियों को स्वतन्त्रता संग्राम की कार्यवाही कहकर आतंकवादियों
को निरन्तर प्रेरित करता रहता है। इस प्रकार जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद ने
पूरी उग्रता से सिर उठा रखा है।
दूसरी ओर जम्मू-कश्मीर की जनता इन आतंकवादियों से तंग आ
चुकी है, वह इन कार्यवाहियों से निजात चाहती है।
इसका स्पष्ट प्रमाण है 1996 तथा 2002 के जम्मू-कश्मीर विधानसभा
के चुनाव तथा 2004 के लोकसभा चुनाव में जनता का बढ़-चढ़कर भाग लेना तथा उनका
सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाना।
(iii) पूर्वोत्तर राज्यों में पृथक्तावादी
आन्दोलन- पूर्वोत्तर राज्यों में पृथकतावादी आन्दोलन तेज हुआ और
भारत सरकार ने भारतीय संघ में 1963 में नागालैण्ड राज्य तथा 1971 में
केन्द्रशासित मिजोरम की स्थापना पर पृथक्तावादी तत्त्वों को समाप्त करने का प्रयास
किया। वर्तमान में कश्मीर तथा पूर्वोत्तर राज्यों में अभी भी पृथक्तावादी आन्दोलन
चल रहा है।
(iv) केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों द्वारा
पूर्ण राज्यत्व की माँग- क्षेत्रीयता की एक अन्य
प्रवृत्ति केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों द्वारा पूर्ण राजत्व की माँग के रूप में
सामने आती है। इसके परिणामस्वरूप हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, त्रिपुरा, पांडिचेरी, मिजोरम
को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया गया। दिल्ली में विधानसभा की स्थापना की माँग भी
मान ली गई।
(v) भारत संघ में पृथक राज्य के निर्माण की माँग- क्षेत्रीयतावाद की एक अन्य प्रवृत्ति भारत संघ में पृथक् राज्य के निर्माण की
माँग के रूप में देखी जा सकती है। आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा
आदि राज्यों के निर्माण की यह प्रवृत्ति आधार रही है। नवम्बर, 2000
में तीन नये राज्यों—
उत्तराखण्ड, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ एवं जून
2014 को तेलंगाना राज्य का निर्माण भी इसी प्रवृत्ति का द्योतक है। अभी भी कतिपय
स्थानों पर ऐसे आन्दोलन जारी हैं।
5. साम्प्रदायिकता
की समस्या-
भारत एक धर्मनिरपेक्ष
राष्ट्र है, फिर भी यहाँ धार्मिक कट्टरता और धर्मान्धता मौजूद है जिसके कारण साम्प्रदायिक
दंगे होते रहते हैं। सभी समुदायों ने साम्प्रदायिक संगठनों को जन्म दिया, जैसे—मुस्लिम
सम्प्रदाय के मुस्लिम लीग,
जमायते इस्लामी और मुस्लिम मजलिस आदि । राष्ट्रीय स्वयं
सेवक संघ (R.S.S.)
के रूप में हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन भी विद्यमान है जो
धर्मनिरपेक्ष और भावात्मक एकता पर घोर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
6. आतंकवाद की
समस्या-
क्षेत्रवाद व पृथक्तावाद के तहत
विभिन्न राजनीतिक दल आन्दोलन की राजनीति का सहारा लेते हैं। इसके तहत वे सरकार के
विरुद्ध सीमाएँ,
प्रदर्शन, बन्द, बहिष्कार, हड़ताल
व अनशन आदि का आयोजन करते हैं। जब कभी आन्दोलन की यह राजनीति असफल हो जाती है तो
वह हिंसा का रूप धारण कर लेती है, जो आगे चलकर आतंकवाद के रूप में
परिणत हो जाता है। भारत में राजनीतिक व्यवस्था के सम्मुख आतंकवाद की समस्या फन
फैलाये खड़ी है। भारत में अनेक आतंकवादी आन्दोलन हुए हैं व चल रहे हैं।
बंगाल का नक्सलवादी आन्दोलन, पंजाब का खालिस्तान
आन्दोलन, असम का बोडोलैण्ड आन्दोलन व उल्फा, जम्मू-कश्मीर
में आतंकवाद आदि परत में आतंकवाद के प्रमुख उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त 'हिजबुल
मुजाहिदीन' व 'हुजी' जैसे आतंककारी संगठनों ने भी भारत के विभिन्न क्षेत्रों में आतंकवादी
गतिविधियाँ संचालित कर देश की शान्ति व्यवस्था को आघात पहुँचाया है।
राष्ट्रीय एकीकरण के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के उपाय
राष्ट्रीय एकीकरण में
आने वाली बाधाओं को दूर करने के तत्त्वों को हम निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत स्पष्ट
करेंगे-
1. उच्च नैतिक
चरित्र-
राष्ट्रीय एकीकरण के
मार्ग में नैतिक चरित्र एक प्रमुख तत्त्व है। सामाजिक और राजनीतिक
नेतृत्त्व का नैतिक चरित्र तो सन्देहरहित होना चाहिये।
2. दलीय आचार संहिता-
राजनीति में दल के आचार और व्यवहार
की एक आचार संहिता होनी चाहिये। यदि कोई दल उसकी उल्लंघना करे तो उस पर प्रतिबन्ध
होना चाहिये। कोई दल ऐसे कार्य न करे, जो जातियों, धर्मों, बिरादरियों
और भाषायी समूहों के वर्तमान भेदों को बढ़ावा दे या उनमें शत्रुता या तनाव
उत्पन्न करे। इसके अलावा सम्मेलन में यह कहा गया कि कोई भी दल किसी भी वर्ग की
साम्प्रदायिक,
भाषाई या क्षेत्रीय शिकायतों को दूर करने के लिए आन्दोलन का
सहारा न ले।
3. राष्ट्रीय शिक्षा
प्रणाली-
राष्ट्रीय एकीकरण में
शिक्षा का महत्त्व अधिक है। धर्म- निरपेक्ष, जातीय सहिष्णुता आदि भावनाओं
का संचार शिक्षा के माध्यम से ही सम्भव है। इसी प्रकार पाठ्यक्रम का आधार
और उद्देश्य राष्ट्रीय होने चाहिये। इसमें आध्यात्मिक मूल्यों पर बल दिया जाना
चाहिये। इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रम का निर्धारण ऐसा होना चाहिये जिससे
विद्यार्थियों में वैज्ञानिक दृष्टि, जाँच और सुधार की भावनाओं का
विकास हो सके। शिक्षा का प्रसार गाँवों तक पहुँचना चाहिये जिससे
ग्रामवासियों में राजनीतिक चेतना जागृत हो सके और वे राष्ट्र निर्माण के कार्य में
सहयोग दे सकें। छात्रावास सामूहिक होने चाहिये, जातीय नहीं।
4. साम्प्रदायिक
संगठनों पर पाबन्दी-
राष्ट्रीय एकीकरण के
लिए साम्प्रदायिक संगठनों पर प्रतिबन्ध होना चाहिये क्योंकि क्षेत्रीय और साम्प्रदायिक
संगठनों जैसे राष्ट्रीय सेवक संघ, मुस्लिम लीग आदि संगठनों से राष्ट्रीय
एकीकरण सम्भव नहीं है।
5. आर्थिक विकास-
राष्ट्रीय एकीकरण में
आर्थिक विकास किया जाए,
आर्थिक असमानताओं को दूर किया जाये और शोषण की प्रणालियों
का अन्त किया जाए क्योंकि यह निर्धनता और अपार बेरोजगारी, निराशा
व असहायता को जन्म देती है जो अन्ततः हिंसक आन्दोलन को जन्म देती है।
6. सांस्कृतिक संगठनों
की स्थापना-
भारत एक मिश्रित (Composite) संस्कृति वाला देश है। इसके लिए जहाँ और अधिक सांस्कृतिक संगठनों को
स्थापित करने की आवश्यकता है, वहाँ उनमें मेल-मिलाप और आदान-प्रदान को
बढ़ावा देने की भी आवश्यकता है, किसी भी एक संस्कृति को दूसरी संस्कृतियों
पर अधिकार जमाने की चेष्टा नहीं करनी चाहिये।
7. प्रशासनिक कुशलता-
प्रशासनिक कुशलता राष्ट्रीय एकीकरण में पूर्ण
रूप से सहायक तत्त्व है। प्रशासन को समाजसेवी और उच्च नैतिक चरित्र की भावनाओं से
प्रेरित होना चाहिए।
8. क्षेत्रीय विकास
के असन्तुलन को दूर करना-
क्षेत्रीय विकास के असन्तुलन को दूर
करना चाहिए। इसके लिए सार्वजनिक उद्योगों को अल्पविकसित और अविकसित क्षेत्रों में
स्थापित किया जा सकता है।
9. सार्वजनिक नीति-
राष्ट्रीय एकीकरण में
सार्वजनिक नीति एक प्रभावकारी यन्त्र सिद्ध हो सकती है। इसलिए नीति निर्माण
और नीति-कार्यान्वयन में पाई जाने वाली रिक्तताओं को दूर करना चाहिये।
10. भाषा की समस्या
का समाधान-
भाषा की समस्या का समाधान शीघ्र होना चाहिये, इसे राष्ट्रीयकरण के उद्देश्यों से प्रभावित होना चाहिए। क्षेत्रीय भाषाओं को उचित स्थान मिलना चाहिए, परन्तु राष्ट्रीय भाषा की कीमत पर क्षेत्रीय भाषाओं का विकास हानिकारक सिद्ध हो सकता है।
आशा हैं कि हमारे द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।
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1 Comments
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