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मुगल दरबार में मारवाड़ के महाराज जसवन्त सिंह की सेवाएँ

मुगल दरबार में मारवाड़ के महाराज जसवन्त सिंह की सेवाएँ

महाराजा जसवन्त सिंह प्रथम का प्रारम्भिक जीवन-

महाराजा जसन्वत सिंह प्रथम का जन्म 26 सिदम्बर, 1626 ई. को बुरहानपुर में हुआ था। उनके पिता महाराजा गजसिंह थे। जिनको अपने जीवनकाल में ही जसवन्त सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। 1638 ई. गजसिंह को मृत्यु हो गई और उसकी मृत्यु के पश्चात् जसवन्त सिंह को जोधपुर का शासक नियुक्त किया गया। इस प्रकार मुगल सम्राट शाहजहाँ द्वारा जसवन्त सिंह को चार हजारी बाग और चार हजारी सवार का मनसब प्रदान किया गया।

जसन्वत सिंह की मुगल साम्राज्य को दी गई सेवाएँ निम्न है-

जसवन्त सिंह और शाहजहाँ

1642 ई. में शाहजहाँ को सूचना मिली कि ईरान का शाह सफी कन्धार पर आक्रमण करने वाला है। अतः शाहजहाँ ने दारा शिकोह के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना कन्धार सुरक्षा के लिए भेज दी। इस सेना के साथ जसवन्त सिंह को भेजा गया। 1642 ई. को ईरानी शासक शाह सफी की मृत्यु हो गई और ईरानी सेना के सामने बहुत कठिनाइयाँ आयी। शाहजहाँ ने शाही सेना को वापिस लौट आने का आदेश दिया। जसवन्त सिंह ने अपने इस अभियान में अपनी सैनिक कुशलता और स्वामिभक्ति का पूरा परिचय दिया।

जसवन्त सिंह द्वारा मेरों का दमन- शाही सेना रहने के कारण जसवन्त सिंह को जोधपुर की देखभाल करने का मौका नहीं मिलता था, अत: जसवन्त ने गोपालदास मेड़तिया को राज्य प्रधानमन्त्री बनाया तथा दूसरी तरफ उत्पन्न मेरों की समस्या का दमन किया और उफस क्षेत्र शान्ति व्यवस्था बनाये रखने का कार्य किया।

(1) कन्धार विजय के लिये प्रस्थान-

मुगल साम्राज्य की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर पुनः संकट के बादल मंडराने लगे। ईरान ने पुन: कन्धार पर अधिकार जमाने का प्रयास शुरू कर दिया। शाहजहाँ ने मुल्तान के सूबेदार एवं अपने पुत्र औरंगजेब को कन्धार अभियान का सेनापति नियुक्त किया। जसवन्त सिंह को भी सेना सहित दरबार में पहुंचने का आदेश दिया गया, जिसके फलस्वरूप जसवन्त सिंह राज दरबार में उपस्थित हुए और उन्हें प्रधानमन्त्री सादुल्ला खाँ के साथ जसवन्त सिंह को कन्धार अभियान में भेजा, परन्तु ईरानी कन्धार पर आक्रमण कर चुके थे और औरंगजेब उसे पुन: जीतने में असफल रहा। अतः शाही सेना जसवन्त सिंह के साथ लाहौर लौट आई और जसवन्त सिंह को आदेश दिया कि वह सवलसिंह को जैसलमेर की गद्दी पर बैठाने के लिए उसको सैनिक सहायता करे। इस अवसर पर शाहजहाँ ने उसे सातलमेर का परगना और किला भी प्रदान किया। जसवन्त सिंह ने सवलसिंह को जैसलमेर का राजा बना दिया। इसी समय 1652 ई. में जसवन्त सिंह के प्रथम पुत्र हुआ अत: उसे राज्य जाने की अनुमति मिल गई, परन्तु वापिस आने में विलम्ब हो गया। अत: दारा शिकोह के साथ कन्धार अभियान में नहीं जा सका।

जसन्वत सिंह को स्वामिभक्ति से प्रसन्न होकर 1653 में शाहजहाँ ने उसे 6000 जात तथा 6000 सवार का मनसब प्रदान किया और इसी अवसर पर उसे महाराज की उपाधि भी प्रदान की गई।

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मारवाड़ के महाराज जसवन्त सिंह

उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध होता है कि जसवन्त सिंह ने 1638 से 1653 तक किसी महत्त्वपूर्ण सैनिक अभियान में कोई भूमिका अदा नहीं की थी, न ही उसको किसी अभियान की स्वतन्त्र कमान सौंपी गई थी और न ही किसी प्रकार को सरकारी दायित्व जसवन्त सिंह को सौंपा गया फिर भी उसके मनसब में निरन्तर वृद्धि की जाती रही और उसका मनसब आमेर के राजा जयसिंह सहित अन्य सभी राजपूत राजाओं से अधिक हो गया।

(2) जसवन्त सिंह और उत्तराधिकार का युद्ध-

सितम्बर, 1657 ई. में शाहजहाँ गम्भीर रूप से बीमार पड़ गया। उसने अपने बड़े पुत्र दारा शिकोह को अपने नाम पर शासन संचालित करने को कहा, क्योंकि वह दारा शिकोह को ही अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। शाहजहाँ के आदेशानुसार दरबार में उपस्थित सभी सरदारों ने दारा शिकोह का सहयोग देने का वायदा किया, महाराजा जसवन्त सिंह दारा शिकोह के ही पक्षधर थे। परन्तु दूरस्थ स्थानों पर शाहजहाँ की बीमारी की घटना कई अफवाहों के साथ फैली जिससे उसके तीनों पुत्रों ने उत्तराधिकार संघर्ष की तैयारी करना प्रारम्भ कर दिया।

औरंगजेब व मुराद ने सैनिक समझौता करके एक-दूसरे को सहायता देने का वादा करके अपनी स्थिति मजबूत बना ली जिससे दारा को अत्यधिक चिन्ता हुई। अत: दारा ने 18 सितम्बर, 1657 ई. को जसवन्त सिंह को राजधानी से विदा किया। जसवन्त सिंह अपनी विशाल सेना के साथ मालवा की तरफ बढ़ा। उसकी योजना मुराद व औरंगजेब कह सेना को संयुक्त होने से रोकने की थी। अत: वह मुख्य सेना को छोड़कर अपने विश्वस्त घुड़सवारों के साथ आगे बढ़ा, जिससे मुराद ने जसवन्त सिंह का सामना करना उचित नहीं समझा और गुजरात लौट गया।

परन्तु कुछ ही समय में मुराद औरंगजेब से जा मिला और दोनों भाई उज्जैन की तरफ बढ़े। जसवन्त सिंह ने औरंगजेब को वापिस लौटने के लिये कहा, परन्तु औरंगजेब ने इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया और औरंगजेब व मुराद की संयुक्त सेना ने धरमत के पास अपना पड़ाव डाला जिससे दोनों पक्षों के मध्य युद्ध जरूरी हो गया।

(1) धरमत का युद्ध- आरम्भ में जसवन्त सिंह ने सोचा कि शाही सेना की उपस्थिति से औरंगजेब घबरा कर वापिस चला जायेगा और युद्ध की नौबत नहीं आयेगी। परन्तु औरंगजेब ने अपनी व्यूह रचना में तोपखाने को अत्यधिक महत्त्व दिया। 16 अप्रैल, 1958 को दोनों पक्षों में युद्ध शुरू हो गया।

युद्ध पारमभ होते ही औरंगजेब की तोपों ने आग उगलना प्रारम्भ कर दिया। जसवन्त सिंह के राजपूत सैनिकों ने उसकी परवाह नहीं की और उन्होंने तोपखाने पर जबरदस्त धावा बोल दिया, जिससे अनेक राजपूत वीर मारे गये; परन्तु कुछ समय के लिए औरंगजेब की तोपें बन्द हो गयी और प्रधान तोपची को मार गिराया। लेकिन राजपूतों की संख्या धीरे-धीरे कम होती गई और अन्त में औरंगजेब ने जसवन्त सिंह को चारों तरफ से घेर लिया। जसवन्त सिंह ने बड़ी वीरता के साथ औरंगजेब का सामना किया और लड़ते हुए बुरी तरह से घायल हो गया। उसके सहयोगी कामिस खाँ ने युद्ध में भाग नहीं लिया और निष्क्रिय बना रहा। अन्त में मजबूर होकर जसवन्त सिंह को युद्ध क्षेत्र छोड़ना पड़ा। इस युद्ध में जसवन्त सिंह बुरी तरह पराजित हो गया क्योंकि उसने अपने तोपखाने का सही प्रयोग नहीं किया।

(2) सामूगढ़ का युद्ध- धरमत के युद्ध में सफलता प्राप्त करने के बाद दोनों भाई औरंगजेब व मुराद आगरा की तरफ बढ़े। 29 मई, 1958 को आगरा से 8 मील दूर सामूगढ़ के मैदान में औरंगजेब, मुराद व दारा के मध्य युद्ध हुआ जिसमें दारा की पराजय हुई। उसके बाद आगरा के किले पर औरंगजेब का अधिकार हो गया तथा उसने शाहजहाँ और मुराद को बन्दी बना लिया और स्वयं सम्राट बन गया।

जसवन्त सिंह व औरंगजेब

औरंगजेब के सम्राट बनाने के बाद जसवन्त सिंह को यह आशंका उत्पन्न हुई कि औरंगजेब उसके साथ दुर्व्यवहार करेगा, क्योंकि उसने औरंगजेब को सहयोग न देकर दारा को सहयोग दिया था। परन्तु औरंगजेब अत्यधिक चालाक था, अत: उसने साम्राज्य विस्तार के लिए लोकप्रियता हासिल करने के लिए सभी प्रमुख सरदारों को अपनी सेवा में रखने का निश्चय किया और शाही फरमान जारी करके जसवन्त सिंह को दरबार में उपस्थित होने का आदेस दिया, परन्तु जसवन्त सिंह को औरंगजेब के सामने जाने में हिचकिचाहट हो रही थी। परन्तु जयपुर महाराजा जयसिंह ने उन्हें समझाकर शाही सेवा में उपस्थित होने के लिये राजी किया।

14 अगस्त को सतलज नदी के किनारे रोपड़ नामक स्थान पर औरंगजेब को सेवा में उपस्थित हुआ और उसने औरंगजेब को रुपये व अशर्फियाँ भेंट में दीं। औरंगजेब ने जसवन्त सिंह को अपनी सेवा में लेकर क्षमा कर दिया और उसे ढाई लाख वार्षिक आय की जागीर प्रदान की तथा उसकी अनुपस्थिति में राजधानी की निगरानी रखने का आदेश दिया।

खजुवा का युद्ध और जसवन्त सिंह-

शुजा ने दिल्ली पर अधिकार करने के लिए खजुवा में अपना सैनिक पड़ाव डाल दिया। औरंगजेब ने खुजाव से एक मील दूरी पर अपना पड़ाव डाला और अपने सैनिकों को हथियारों से लैस होकर विश्राम करने का आदेश दिया। जसवन्त सिंह के मन में धरमत के युद्ध के बाद से ही औरंगजेब का भाग समाया हुआ था अतः उसने सूर्योदय से लगभग एक घण्टे पहले औरंगजेब के पुत्र के मुहम्मद के पड़ाव पर अचानक आक्रमण करके औरंगजेब की स्थिति को नाजुक बना दिया। जसवन्त सिंह के विश्वासघात से औरंगजेब अत्यधिक क्रोधित होकर शुजा पर आक्रमण कर दिया जिसमें औरंगजेब को सफलता मिली।

जसवन्तसिंह और दारा-

खजुवा से जसवन्त सिंह आगरा की तरफ चला गया और आगरा से सीधा जोधपुर चला गया परन्तु जसवन्त सिंह को औरंगजेब के सम्भावित आक्रमण को भय सता रहा था अतः उसने दारा से समझौता करने का प्रयास किया। औरंगजेब ने जसवन्त सिंह को धमकी भरा पत्र लिखा कि अगर वह दारा से समझौता कर लेगा तो उसके पूरे परिवार को नष्ट कर दिया जायेगा। फिर भी इस समय जसवन्तसिंह व दारा दोनों को ही एक दूसरे की सहायता की आवश्यकता थी। औरंगजेब ने जसवन्त सिंह को दण्ड देने का विचार त्याग दिया और उसे समझा-बुझाकर अपने पक्ष में कर लिया। जसवन्तसिंह ने भी परिस्थितियों की नजाकत को पहचानते हुए दारा को सहयोग करने का विचार त्याग दिया।

औरंगजेब के शासनकाल में जसवन्तसिंह के निम्नलिखित कार्य किये-

1. गुजरात की प्रथम सूबेदारी-

औरंगजेब के मार्च 1659 ई. में जसवन्त सिंह को गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया था। जिस समय जसवन्त सिंह को सूबेदार नियुक्त किया गया था। उस समय की समूची शासन व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो चुकी थी। जसवन्त सिंह ने दूदा कौली तथा अन्य उपद्रवी जमींदारों का दमन करके गुजरात में शक्ति व्यवस्था स्थापित की।

2. जसवन्त सिंह दक्षिण में-

15 जनवरी, 1662 ई. में जसवन्त सिंह अहमदाबाद से चलकर औरंगाबाद पहुँच गया और चार दिन बाद वह पूना पहुंचा जहाँ पर शाइस्तखाँ बेचैनी से उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। दक्षिण पहुँचकर जसवन्त सिंह के दक्षिण भारत पहुंचने से शाही सेना की स्थिति मजबूत हो गयी थी परन्तु शिवाजी ने छापेमार युद्ध पद्धति से शाही सेना को पराजित कर दिया। अत: औरंगजेब ने जसवन्त सिंह को शाही दरबार में बुला लिया।

3. शाही दरबार में (1665-66)-

दक्षिण में आने के बाद लगभग सवा साल तक जसवन्त सिंह शाही दरबार में रहा और जब 1666 ई. में शाहजहाँ की मृत्यु हो गई तो औरंगजेब दिल्ली चला गया तथा जसवन्त सिंह व उनके पुत्र पृथ्वीसिंह को भी दिल्ली ले गया। शाही दरबार में रहते हुए जसवन्त सिंह ने शिवाजी को दण्ड देने की प्रार्थना की।

4. लाहौर में-

ईरान का शाह अब्बास द्वितीय मुगल साम्राज्य पर आक्रमण करने की तैयारी में लगा हुआ था, अत: औरंगजेब ने तत्काल अपना एक राजदूत भेज कर शाह से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया, परन्तु उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई। अत: औरंगजेब ने सीमा सुरक्षा के लिए जसवन्त सिंह को लाहौर भेजा। जहाँ से 1667 ई. को वह वापिस शाही दरबार में उपस्थित हो गया।

5. पुन: दक्षिण में-

शिवाजी के आगरा से निकल भागने तथा रामसिंह के प्रति व्यवहार में मिर्जा राजा जयसिंह बहुत दुःखी हो गये थे, परन्तु फिर भी वह दक्षिण भारत में मुगल साम्राज्य के हितों के लिये बीजापुर के विरुद्ध संघर्ष करता रहा, परन्तु यहाँ भी भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया और उसका बीजापुर अभियान बुरी तरह असफल रहा। अत: औरंगजेब से सैनिक सहायता माँगी, परन्तु औरंगजेब ने उस समय कोई ध्यान नहीं दिया, परन्तु 1667 ई. में जयसिंह को दक्षिण से हटाकर युवराज मुअञ्जम को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया तथा महाराजा जसवन्त सिंह को उसकी सहायता के लिए दक्षिण में नियुक्त किया गया। इस प्रकार जसवन्त सिंह को दुबारा दक्षिण में नियुक्त कर दिया। मुअज्जम व जसवन्तसिंह ने शिवाजी से सन्धि की जिससे दक्षिण भारत में उनकी प्रतिष्ठा बहुत अधिक बढ़ गई अतः दिलेर खाँ ने औरंगजेब के कान भरने शुरू कर दिये जिससे औरंगजेब ने गुजरात के सूबेदार बहादुर खां को दक्षिण में नियुक्त किया तथा जसवन्तसिंह को गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया।

6. गुजरात की दूसरी सूबेदारी-

शाही आदेशानुसार जसवन्त सिंह 1671 ई. में औरंगाबाद से अहमदाबाद जा पहुँचा। इस अवसर पर उसे हिसार, पतलाद और धंधूका के परनेग जागीर के रूप में दिये गये तथा साथ ही सरकारी ऋण चुकाने के आदेश भी दिये गये। इस पद पर रहते हुए जसवन्त सिंह ने नवानगर राज्य के उत्तराधिकारी को समस्या के समाधान में योगदान दिया तथा छोटे-मोटे झगड़ों को समाप्त करके गुजरात में शांति व्यवस्था स्थापित की।

7. काबुल में जसवन्त सिंह-

वास्तव में औरंगजेब अब भी जसवन्त सिंह का पूरा विश्वास नहीं कर पाया था। उसे हमेशा इस बात का भय बना रहता था कि यह किसी भी युवराज से मिलकर आक्रमण कर सकता था। अत: वह जसवन्त सिंह को दूरस्थ प्रदेशों में ही भेजना चाहता था। उत्तर-पश्चिमी सीमा पर सरहदी अफगान कबीलों के उपद्रव बढ़ने लगे। काबुल में मुगल सूबेदार मुहम्मद अमीन खां ने उनका दमन करने का प्रयास किया, परन्तु 1672 ई. में अफगान कबीलों के द्वारा बुरी तरह पराजित हुआ। अत: औरंगजेब ने अमीनखां को वहाँ से हटा लिया तथा महाबत खाँ को काबुल का नया सूबेदार नियुक्त किया। इसी अवसर पर जसवन्त सिंह को जमरूद का थानेदार नियुक्त किया गया। वहाँ जसवन्तसिंह ने अफगानों को दबाने में सफलता प्राप्त की और 52 वर्ष की उम्र में 28 नवम्बर, 167 ई. को जमरूद में ही उसकी मृत्यु हो गई।

जसवन्त सिंह का मूल्यांकन

जसवन्त सिंह अपने समय का एक पराक्रमी सैनिक, कुशल सेनानायक और सुयोग्य प्रशासक था। उसने अपने राजनीतिक जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव देखे। जसवन्त सिंह को 12 वर्ष की आयु में ही राज्य का भार सम्भालना पड़ा और अल्प आयु में ही प्रशासन इतनी योग्यता से संचालित किया कि शाहजहाँ की निगाहों में वे जल्दी समा गये। जसवन्त सिंह अपने समय के हिन्दू शासकों में अग्रणी थे। उनकी शाही दरबार अपने समय के हिन्दू शासकों में अग्रणी थे। उनकी शाही दरवार में प्रतिष्ठा सबसे सर्वोपरि रही। शाहजहाँ के शासनकाल में तो अपने से कहीं अधिक आयु वाले एवं अनुभवी सेनानायक तथा राजनीतिज्ञ मिर्जा राजा जयसिंह से भी उनका सम्मान अधिक ही रहा।

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