सवाई जयसिंह द्वितीय की उपलब्धियाँ
प्राम्भिक जीवन-
सन् 1707 ई. में मुगल सम्राट् औरंगजेब की मृत्यु से मुगल साम्राज्य को गहरा आघात पहुँचा। उत्तरकालीन शासकों के निर्बल होने के कारण मराठों ने दक्षिण भारत में ही न केवल अपने स्वतन्त्र राज्य की स्थापना कर ली बल्कि उत्तर भारत में भी अपना प्रभुत्व जमाने निश्चय कर लिया। मराठे उत्तर भारत के उपजाऊ मालवा व गुजरात के क्षेत्रों पर अधिकार करके राजस्थान के मालवा राज्य में प्रवेश करना चाहते थे। सन् 1713 ई. में मुगल सम्राट फर्रुखसियर ने उत्तर भारत में मराठों का प्रसार रोकने के लिये सवाई जयसिंह को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया जिसने मराठों के प्रसार को रोकने का भरसक प्रयास किया।
जयसिंह का जन्म 3 दिसम्बर, सन् 1688 ई. को हुआ।
सम्राट औरंगजेब ने इसे जयसिंह प्रथम की तुलना में वीरता व
वाक्पटुता में अधिक पाकर इसका नाम सवाई जयसिंह रख दिया। 1700 ई. में
अपने पिता की मृत्यु के बाद सवाई जयसिंह को अपने राज्य का कार्य-भार
सम्भालना पड़ा। शासन सम्भालने के बाद उसने सबसे पहले अपने राज्य के विद्रोहों का
दमन किया और शासन व्यवस्था में आवश्यक सुधार किये और सम्राट के आदेश पर 1 अक्टूबर, 1701 में दक्षिण में सम्राट
की सेवा में बुरहानपुर पहुँचा। सम्राट की देखरेख में चल रहे खेलना के दुर्ग पर
मराठों की घेराबन्दी तोड़ने के कारण सम्राट ने प्रसन्न होकर सम्राट ने उसका मनसब
बढ़ाकर 2000 जात और 2000 सवार कर दिया।
मालवा की प्रथम
सूबेदारी
उत्तर भारत में
मराठों का प्रसार रोकने के लिये फर्रुखसियर ने सवाई जयसिंह
को सन् 1713 ई. में मालवा का सूबेदार नियुक्त किया। जयसिंह ने मालवा का
शासन सम्भालते ही पहले तो अफगानों के विद्रोह का दमन किया तथा मई,1715 में मराठों की
30,000 की सेना को पिलसुद नामक स्थान पर बुरी तरह परास्त किया, इस क्षेत्र की सख्त
नाकेबन्दी करके उन्हें नर्मदा के पार खदेड़ दिया। इस समय राजधानी में परिस्थितियाँ
तेजी से बदलने के कारण सैय्यद बन्धुओं के दबाव में आकर फर्रुखसियर ने सवाई
जयसिंह को सितम्बर, 1775 में दिल्ली
बुलाकर जाटों के विरुद्ध कमान सौंप दी। जयसिंह इससे प्रसन्न हुआ क्योंकि वह
स्वयं राजधानी में रहकर सैय्यदों की राजनीति में फँसना नहीं चाहता था।
मालवा की दूसरी
सूबेदारी (जयसिंह की मराठा नीति)
लगभग 12 वर्षों
के बाद जयसिंह को दूसरी बार मालवा का सूबेदार नियुक्त किया। इस समय तक इस
प्रान्त की राजनीतिक स्थिति में रात-दिन का अन्तर आ गया था। सन् 1730 ई. तक मराठों
ने दक्षिण के सूबों तथा गुजरात से चौथ व सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार प्राप्त कर
लिया था। इस समय मराठों का नेतृत्व पेशवा बाजीराव कर रहा था जिसके
उत्तरी प्रसार को रोकना अत्यधिक कठिन हो रहा था। पेशवा ने सन् 1727 ई. में निजाम
को बुरी तरह परास्त करके शिव गाँव की सन्धि करने के लिये बाध्य किया था।
जयसिंह ने इस मौजूदा स्थिति में
मराठों व मुगल सरदार के बीच ऐसा समझौता कराने का प्रयास किया जो कि मराठों की
आकांक्षाओं की पूर्ति के साथ-साथ मुगल सम्राट के अधिकारों की रक्षा भी कर सके। इस
समय वह मालवा के दक्षिण भागों में मराठों का प्रभुत्व स्वीकार करके केन्द्रीय
मालवा में अपना प्रभाव जमाये रखना चाहता था।
शाहू के साथ समझौता-
जयसिंह ने छत्रपति शाहू
से पुत्र व्यवहार किया और यह प्रस्ताव रखा कि मालवा में मराठा आक्रमण को रोकने की
शर्त पर शाहू के दत्तक पुत्र कुशल सिंह को 10 लाख रुपये आय की जागीर
दे दी जावे। इस समझौते में मालवा व गुजरात की चौथ देने की बात नहीं थी। अपने
प्रस्ताव पर पेशवा की मनोस्थिति जानने के लिये जयसिंह ने अपने विश्वस्त
सरदार दीपसिंह को सतारा भेजा। दीपसिंह ने मराठों को मालवा और गुजरात
की चौथ के बदले क्रमशः 11 और 15 लाख रुपये वार्षिक देने का प्रस्ताव भी रखा लेकिन
अन्य सरदारों के षड्यन्त्र के चलते सवाई जयसिंह को 1730 में वापिस
बुलवा लिया गया और मुहम्मद बंगश को मालवा का सूबेदार नियुक्त कर
दिया गया। परिणाम यह निकला कि जयसिंह ने मराठों के साथ समझौते का जो प्रयास किया
था वह सब बेकार चला गया।
मालवा की तीसरी
सूबेदारी
अत्यधिक विपरीत
परिस्थितियों में 6 दिसम्बर, 1732 को जयसिंह
ने तीसरी बार मालवा की सूबेदारी सम्भाली, इस समय मालवा की राजस्व व्यवस्था दयनीय होने के कारण जयसिंह
ने मेवाड़ के साथ मिलकर मालवा में मराठों के प्रभाव को रोकने की कार्य-योजना तैयार
की लेकिन इस योजना पर अमल होने के पहले ही मराठे मालवा में आ धमके और होल्कर
ने जयसिंह को चारों तरफ से घेर लिया। उसकी रसद सामग्री काट ली, जयसिंह में लड़ने की क्षमता
नहीं थी अत: उसने होल्कर से संधि की बात चलाई और 6 लाख रुपये नगद और 28
परगनों की आय देना स्वीकार किया। इसके बाद 18 मार्च 1733 को मराठों ने मालवा छोड़
दिया और जयसिंह भी अपनी राजधानी जयपुर लौट आया क्योंकि इस समय राजपूताने में उसकी
उपस्थिति अधिक जरूरी हो गयी थी।
राजस्थान में मराठों
का प्रवेश-
इस समय राजस्थान
में एक के बाद एक संघर्ष के तीन केन्द्र बन गये- बूंदी, जयपुर और जोधपुर। संघर्ष
का कारण केवल उत्तराधिकार प्राप्त करना था।
बूंदी उत्तराधिकार संघर्ष-
मुगल सम्राट मोहम्मद
शाह के शासन काल में जयसिंह के प्रभाव व प्रतिष्ठा में लगातार
वृद्धि होती जा रही थी और मुगल सत्ता तेजी से पतन की ओर जाती जा रही थी अत: अब जयसिंह
ने अपनी मालवा की इस अल्पकालीन सूबेदारी का लाभ उठाते हुये पूर्वी राजस्थान को
अपने नियन्त्रण में लाने का सफल प्रयास किया। इसी समय बूंदी के शासक बुद्धसिंह
ने अपनी कछवाहा रानी से उत्पन्न पुत्र को अपना मानने से इन्कार कर दिया और कहा कि
वह कछवाहा रानी के नजदीक कभी गया ही नहीं अत: यह पुत्र अवैध है। इस पर जयसिंह
का क्रोधित होना स्वाभाविक था। अतः जयसिंह ने बुद्धसिंह को
सत्ताच्युत करने का निश्चय कर लिया।
सवाई जयसिंह द्वितीय की उपलब्धियाँ |
जब बुद्धसिंह
किसी कारणवश अपनी राजधानी से दूर गया हुआ था तो जयसिंह ने आक्रमण कर बूंदी पर
अधिकार कर लिया और करवड़ के जागीरदार के पुत्र दलेल सिंह को बूंदी
की गद्दी पर बिठा दिया। बूंदी का नया शासक अब जयसिंह के सामन्तों की श्रेणी
में आ गया और अन्य राज्य भी बूंदी को जयपुर राज्य का एक अंग मानने लगे। 1729 में
जब जयसिंह मालवा गया हुआ था तो बुद्धसिंह ने बूंदी पर आक्रमण कर
दिया लेकिन जयपुर की सेना की सहायता से दलेल सिंह ने बुद्धसिंह को पंचोला
के युद्ध में परास्त किया। जयसिंह ने दलेल सिंह को पुनः गद्दी पर बैठाया और अपनी
पुत्री कृष्णा कुमारी का विवाह उसके साथ कर दिया।
मराठों का राजस्थान
पर पहला आक्रमण-
इस समय तक मालवा
पर मराठों का नियन्त्रण हो चुका था और 1733 में जयसिंह को मराठों के हाथों
परास्त होकर अपमानजनक सन्धि करने को बाध्य होना पड़ा था। ऐसी स्थिति में बूंदी की
कछवाहा रानी ने मराठों की सहायता से अपने पुत्र भवानी सिंह को गद्दी पर बिठाने का
निश्चय किया। भवानी सिंह को रानी ने जन्म नहीं दिया। बल्कि कहीं से
मंगवाकर अपना पुत्र घोषित कर दिया था। बुद्धसिंह ने उसे अपना पुत्र मानने
से इन्कार कर दिया था और जयसिंह के इशारे पर मरवा दिया था। बाद में 1730
में बुद्धसिंह की भी मृत्यु हो गयी। बुद्धसिंह के लड़के को
बूंदी-जयपुर संघर्ष विरासत में मिला था।
कछवाहा रानी ने
होल्कर व सिन्धिया को 4 लाख रुपये देने का आश्वासन दिया। 08 अप्रैल, 1734 को होल्कर व
सिन्धिया की सेना ने बूंदी पर चढ़ाई कर दी। चार दिन के संघर्ष के बाद बूंदी पर
मराठों का अधिकार हो गया। बूंदी में उम्मेद सिंह का शासन स्थापित कर दिया गया, चूंकि उम्मेद सिंह छोटा
था अत: प्रताप सिंह को बूंदी का शासन भार सौंपा गया।
मराठों के बूंदी
से लौटते ही जयसिंह ने 20,000 सैनिकों को बूंदी पर चढ़ाई करने भेजा. इस सेना ने
दलेल सिंह को पुनः शासक बना दिया यद्यपि प्रताप सिंह पुनः होल्कर से मिला, लेकिन होल्कर ने कुछ
रुपयों के लालच में जयसिंह से सम्बन्ध बिगाड़ना उचित नहीं समझा और फिर बूंदी के
मामले में कभी हस्तक्षेप नहीं किया।
हुरड़ा सम्मेलन-
मालवा और गुजरात
पर मराठों के अधिकार ने राजस्थान पर आक्रमण व हस्तक्षेप करने के रास्ते खोल दिये
थे अत: राजस्थान के विचारशील राजाओं ने यह अच्छी तरह समझ लिया कि यदि मराठों को
रोकने का मिलजुल कर प्रयल नहीं किया तो राजस्थान की भी वही दशा होगी जो गुजरात व
मालवा की हुई है। अत: इस समस्या का समाधान निकालने के लिये जयसिंह ने राजस्थान
के समस्त राजाओं को हुरड़ा नामक स्थान पर एकत्रित करने का आयोजन किया।
सम्मेलन के एक दिन पहले मेवाड़ के एक प्रमुख उमराव ने मालवा से मराठों को बाहर
निकालने और मालवा के विभाजन की एक योजना भी तैयार कर ली। लेकिन जनवरी, 1734 में उसकी मृत्यु के
साथ ही उसकी योजना का भी अन्त हो गया। लेकिन फिर भी निर्धारित योजना के अनुसार हुरड़ा
सम्मेलन आरम्भ हुआ।
मेवाड़ के नये
महाराणा जगत सिंह द्वितीय ने सम्मेलन की अध्यक्षता की। काफी
सोच-विचार के बाद सभी राजाओं ने एक समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये। समझौते के अनुसार
सभी राजाओं ने यह निश्चय किया कि वर्षा ऋतु के बाद मराठों के विरुद्ध ठोस
कार्यवाही की जायेगी। सभी राजा रामपुरा में एकत्र होंगे, यदि कोई राजा स्वयं नहीं
आ सकेगा तो वह अपने स्थान पर अपने भाई अथवा पुत्र को भेजेगा।
राजपूत राजाओं
द्वारा मिलकर निर्णय लेना एक महत्त्वपूर्ण बात थी, लेकिन दुर्भाग्यवश जो निर्णय लिये गये उन्हें कार्यान्वित
नहीं किया जा सका। राजपूत राजाओं का इतना घोर नैतिक पतन हो चुका था कि वे
व्यक्तिगत स्वार्थ व लाभ को भूलकर अपने शारीरिक सुखों को त्याग कर उनके लिये
मिलजुलकर मराठों का मुकाबला करना असम्भव बात हो गयी थी। स्वयं जयसिंह मालवा
के विभाजन को अव्यावहारिक मानता था। वह मराठों की शक्ति से भली-भांति परिचित था।
सभी राजाओं में पारस्परिक सद्भावना का भी अभाव था। सम्भवत: इसीलिये वर्षा ऋतु के
बाद राजपूत राजाओं ने रामपुरा में एकत्र होने के स्थान पर मुगल सरकार द्वारा मराठों
के विरुद्ध अभियान में शामिल होना उपयुक्त समझा।
मराठों के विरुद्ध
अभियान-
अक्टूबर, 1734 में मुगल दरबार ने
मराठों को मालवा से निकाले की एक विशेष योजना बनाई और वजोर कमरुद्दीन खाँ
और खाने दोरान के नेतृत्व में विशाल सेनायें भेजी, लेकिन मराठों ने अपने कुशल नेतृत्व में सम्पूर्ण सेना को
छिन्न-भिन्न कर दिया और राजस्थान के अनेक क्षेत्रों को जमकर लूटा, जयसिंह के नेतृत्व में दोनों
पक्षों के बीच समझौता हुआ यद्यपि समझौते को किसी भी शर्त को कभी क्रियान्वित नहीं
किया जा सका लेकिन इन शर्तों को जयसिंह व खाने दोरान द्वारा स्वीकार करना
ही एक बड़ी बात थी।
पेशवा का राजपूताना
में आगमन-
मुगल सम्राट ने
मार्च, 1935 को सन्धि की शर्तों
को मानने से इन्कार कर दिया तब बाजीराव स्वयं राजपूत राजाओं से व्यक्तिगत मुलाकत
करने व चौथ वसूली शान्तिपूर्ण तरीके से करने के लिये बाजीराव ने राजपूताना आने का
निश्चय किया पूना से प्रस्थान करके वह जनवरी, 1736 में उदयपुर पहुंचा यद्यपि पेशवा ने राणा को पूर्ण
सम्मान दिया लेकिन चौथ वसूली में किसी प्रकार की रियायत देने से इन्कार कर दिया।
इसके बाद पेशवा झाड़ली गांव स्थित खेमे में जयसिंह से मिला, यहाँ कुछ दिनों के
विचार-विमर्श के बाद पेशवा ने निम्न मांगें प्रस्तुत की-
(1) उत्तर भारत
में वतन जागीर
(2) मराठा
सरदारों के लिये मनसब
(3) दक्षिण से
पाण्डेगिरी वसूलने का अधिकार
(4) मालवा
सूबेदारी और खर्चे का रूप में 6 लाख रुपये।
लेकिन सम्राट ने
इस बारे में कोई जवाब नहीं दिया। बाजीराव के पास सम्राट ने 29 सितम्बर, 1736 को फरमान भेजा लेकिन
इसमें भी मालवा की सूबेदारी का जिक्र नहीं था अत: बाजीराव ने क्रोधित होकर
राजधानी पर धावा बोल दिया, दिल्ली में स्थित
थोड़ी सेना पिट-पिटाकर वापिस लौट गयो, बाजीराव ने न तो दिल्ली को लूटा और न उस पर अधिकार किया बल्कि
कोटपूतली और लालसोट होता हुआ विद्युत गति से निकल गया। इस दौरान सम्राट के आदेश के
बाद भी जयसिंह ने पेशवा को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया क्योंकि वह यह
अच्छी तरह जानता था कि पेशवा का यह अभियान दरवार में उसके विरोधी तूरानी गुट के
विरुद्ध है।
जयसिंह की
मध्यस्थता-
धौलपुर समझौता- नये पेशवा बालाजी बाजीराव
ने भी जयसिंह के साथ अपने सम्बन्धों को अत्यधिक महत्त्व दिया। नादिर
शाह के आक्रमण के बाद पेशवा जयसिंह के माध्यम से ही समझौता करना
चाहता था लेकिन निजाम इस समझौते को असफल कर देना चाहता था लेकिन पूना दरबार सवाई
जयसिंह की मध्यस्थता में ही विश्वास रखता आया था। पेशवा स्वयं उत्तर भारत
के लिये रवाना हुआ और जयसिंह से धौलपुर में मिला। 18 मई, 1741 तक दोनों सरदार
समझौते पर विचार-विमर्श करते रहे, अन्त में दोनों
के बीच समझौता हो गया जिसके अनुसार-
(1) पेशवा को
मालवा की सूबेदारी दिलवा दी जायेगी लेकिन मराठे अन्य सूबों में लूटमार नहीं
करेंगे।
(2) आवश्यकता
पड़ने पर 4000 सवार मुगल सेवा में भेजने होंगे जिसका खर्चा मुगल सरकार देगी।
(3) पेशवा को
चम्बल के पूर्व व दक्षिण के जमींदारों से नजर व पेशकश लेने का अधिकार होगा।
(4) पेशवा सम्राट
के प्रति निष्ठा और मुगल सेवा स्वीकार करेगा।
(5) भविष्य में
पेशवा धन सम्बन्धी कोई माँग सम्राट के सामने नहीं रखेगा।
सवाई जयसिंह की सलाह
पर बादशाह ने इस समझौते को स्वीकार करते हुये फरमान जारी किया जिसमें बादशाह की
मान-प्रतिष्ठा भी बनी रही और शाही आत्म-समर्पण भी छिपा रहा।
जयसिंह की मराठा
नीति का मूल्यांकन-
जयसिंह एक महत्त्वाकांक्षी शासक
था। उसकी मराठा नीति व्यक्तिगत अनुभव व महत्त्वाकांक्षा की मिली-जुली कहानी है।
उसने मौजूदा स्थिति का अध्ययन करके मुगल सत्ता की दुर्बलता का अनुभव कर लिया था।
उसने मराठा शक्ति का सही अनुमान लगाकर मराठों व मुगलों के बीच ऐसा समझौता कराने का
प्रयास किया जिससे मराठे मुगल सत्ता के आधार-स्तम्भ बन जावें और लूटपाट की नीति
त्याग दें। जयसिंह ने मराठों को चौथ वसूली के विरुद्ध हुरड़ा सम्मेलन
भी आयोजित किया यद्यपि वह योजना किन्हीं कारणों से क्रियान्वित नहीं हो पायी। जयसिंह
ऐसा पहला शासक था जिसने मराठा आतंक और उसके विनाशकारी परिणामों का सही-सही अनुमान
लगा लिया था और उसे टालने का हर सम्भव प्रयास किया था।
मध्यकालीन
राजस्थान का यह राजपूत शासक अपने समय में मगल साम्राज्य का एक प्रमुख सेनानायक तथा
सर्वश्रेष्ठ अधिकारी रहा है। जिसने अपनी योग्यता से न केवल सम्पूर्ण राजपूत राजाओं
का नेतृत्व ग्रहण कर लिया था बल्कि मुगल दरबार में भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान
बनाया। जयसिंह ने अपने राज्य को सुसंगठित किया व ढूंढार तथा शेखावाटी
प्रदेशों में। राजनीतिक एकता भी स्थापित की। राज्य की भावी आवश्यकता को देखते हुये
जयपुर जैसे सुन्दर नगर का निर्माण करवाया, इस नई राजधानी जयपुर को भारतीय साहित्य व हिन्दू संस्कृति
का केन्द्र बनाया, खगोल शास्त्र में रुचि
होने के कारण मथुरा, बनारस, उज्जैन व जयपुर में वैधशालाय
स्थापित करवायीं,
वास्तव में जयसिंह
का चरित्र उस युग की समस्त भली-बुरी प्रवृत्तियों तथा समकालीन गुण-दोषों का एक
विचित्र मिश्रण था। सही अर्थों में वह अपने समय का प्रतिनिधि था।
आशा है कि हमारे
द्वारा दी गयी जानकारी आपको काफी पसंद आई होगी। यदि जानकारी आपको पसन्द आयी हो तो
इसे अपने दोस्तों से जरूर शेयर करे।
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