बिजौलिया किसान आन्दोलन
आन्दोलन का पहला भाग (1897 से 1915 ई. तक)-
1894 में बिजौलिया के नये जागीरदार किशनसिंह ने लगान में वृद्धि कर दी तथा अनेक प्रकार की लागतें लगा दी। किसानों ने इसका विरोध किया। 1897 में किसानों के प्रतिनिधि के रूप में नानजी पटेल तथा ठाकरी पटेल ने मेवाड़ के महाराणा से शिकायत की। परन्तु महाराणा ने एक या दो लागतें कम करने के अतिरिक्त कोई ठोस सुधार नहीं किया। 1906 में नये जागीरदार पृथ्वीसिंह ने लगान अधिक बढ़ाने के आदेश दिए, जिस पर किसानों ने खेती करना छोड़कर निकटवर्ती क्षेत्रों में जाने का निर्णय किया।
1914 में पृथ्वीसिंह की मृत्यु के बाद केसरीसिंह जागीरदार बना।
वह अल्पवयस्क था तथा उसकी माता ने किसानों की कुछ माँगों को स्वीकार कर लिया।
परन्तु जागीर के कर्मचारियों ने किसानों को कोई सुविधा नहीं दी। 1914 में प्रथम
विश्वयुद्ध शुरू हो गया और जागीरदार ने अपने ठिकाने के किसानों से युद्ध-कोष
का धन वसूल करना शुरू कर दिया। इससे किसानों में असंतोष उत्पन्न हुआ।
आन्दोलन का दूसरा भाग (1915 से 1941 तक)-
सीतारामदास के आग्रह पर विजयसिंह पथिक ने 1916 में विजौलिया
किसान आन्दोलन का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया।
(1) किसान पंचायत का गठन-
विजयसिंह पथिक ने साधु सीतारामदास, माणिक्यलाल वर्मा, प्रेमचन्द आदि के सहयोग से किसानों को संगठित किया। उसने किसान
पंचायत का गठन किया और किसानों को युद्ध-कोष में धन देने से मना किया। किसानों
ने घोषणा की कि वे बेगार नहीं करेंगे। जब जागीरदार ने नारायणजी पटेल
नामक एक किसान को बेगार नहीं करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया, तो किसानों ने सत्याग्रह
शुरू कर दिया। अन्त में किसानों के दवाव पर नारायणजी पटेल को जेल से
रिहा कर दिया गया।
(2) जागीरदार की दमनकारी नीति-
पथिकजी के आह्वान पर बिजौलिया के किसानों ने ठिकाने को लाग-बाग भेंट आदि से
इन्कार कर दिया। इस पर जागीरदार ने दमनकारी नीति अपनाते हुए सैकड़ों किसानों को
जेल में डाल दिया। माणिक्यलाल वर्मा, साधु सीतारामदास आदि अनेक किसान नेताओं को गिरफ्तार कर लिया
गया। अन्त में मेवाड़ की सरकार ने किसान आन्दोलनकारियों की शिकायतों की सुनवाई के
लिए एक जाँच आयोग का गठन किया। माणिक्यलाल वर्मा, साधु सीतारामदास आदि किसान नेताओं के जेल से
रिहा कर दिया गया। जाँच आयोग ने सिफारिश की कि अनावश्यक लागते तथा बेगार
प्रथा को समाप्त कर दिया जाए परन्तु मेवाड़ की सरकार ने आयोग की सिफारिशों
पर कोई ध्यान नहीं दिया।
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बिजौलिया किसान आन्दोलन के कारण, महत्त्व और परिणाम |
(3) किसान आन्दोलन को राष्ट्रीय स्तर पर लाना-
विजयसिंह पथिक ने कानपुर से प्रकाशित होने वाले समाचार-पत्र 'प्रताप' के माध्यम से बिजौलिया
किसान आन्दोलन को पूरे देश में चर्चित कर दिया। पथिक ने गाँधीजी से
भेंट कर उन्हें बिजौलिया के किसानों पर किये जा रहे अत्याचारों से अवगत कराया।
(4) किसानों और जागीरदार के बीच पुनः संघर्ष-
पथिकजी की सलाह पर किसान पंचायतों ने निर्णय किया कि वे सिंचित भूमि नहीं जोतेंगे।
इस पर जागीरदार ने घोषणा की कि यदि किसान असिंचित भूमि को जोतेंगे, तो उन्हें सिंचित भूमि का
लगान भी अनिवार्य रूप से देना होगा। किसानों ने इसका विरोध किया। इस पर जागीरदार
ने लगभग 200 प्रमुख किसानों को जेलों में डाल दिया। महाराणा द्वारा नियुक्त जाँच
आयोग ने सिफारिश की कि किसानों से अवैधानिक रूप से ली जा रही लागते व बेगार
को समाप्त कर दिया जाए, परन्तु महाराणा ने जाँच आयोग को सिफारिशों पर कोई ध्यान नहीं दिया। इस पर
किसानों ने जागीरदार को लगान, लागते, भेंट, बेगार आदि देना बंद कर
दिया। जागीरदार ने दमनकारी नीति अपनाई और सत्याग्रहियों पर भीषण अत्याचार किये।
(5) ठिकाने और किसानों के बीच समझौता तथा आन्दोलन की समाप्ति-
बिजौलिया किसान आन्दोलन की बढ़ती हुई लोकप्रियता से ब्रिटिश सरकार चिन्तित हुई और
उसने महाराणा को इस आन्दोलन को समाप्त करने की सलाह दी। 1921-22 में ए.जी.डी.
ने मेवाड़ के कुछ ठिकानों का दौर किया। ए.जी.जी. तथा मेवाड़ का रेजीडेन्ट
11 फरवरी, 1922 को बिजौलिया पहुंचे।
उनके प्रयत्नों से 14 फरवरी, 1922 को बिजौलिया के जागीरदार तथा किसानों के बीच समझौता हो गया।
समझौते के अनुसार लगभग 35 लागतें समाप्त कर दी गई तथा लगान की मांग भी कम कर
दी गई। बेगार प्रथा समाप्त कर दी गई। जागीरदार की ओर से किसानों पर चलाए गए मुकदमे
उठा लिए गए। जिन किसानों की भूमि दूसरों को दे दी गई थी, वह उन्हें वापस लौटा दी
गई। भूमि बन्दोबस्त करवाने का भी निर्णय लिया गया। किसानों को पहले फसल
पकने के एक मास पूर्व ही लगान देना पड़ता था, परन्तु उन्हें अब फसल पक जाने के एक महीने बाद लगानें देने
की छूट दी गई। चित्तौड़ी मुद्रा को अंग्रेजी सिक्कों में बदलने के लिए जो बट्टा
लिया जाता था,
वह भी बन्द कर
दिया गया।
(6) जागीरदार द्वारा समझौते को लागू न करना और पुनः आन्दोलन का सूत्रपात-
बिजौलिया के जागीरदार ने समझौते का उल्लंघन करते हुए किसानों पर पुनः नई लागतें लगा दो
और लगान की मांग भी बढ़ा दी। 1923 से 1926 तक निरन्तर अतिवृष्टि तथा अनावृष्टि से
फसलें नष्ट हो गई परन्तु जागीरदार ने किसानों से लगान व लाग-बाग वसूल करना जारी
रखा। 1926 में बिजौलिया ठिकाने का बन्दोबस्त हुआ जिसके अनुसार बारानी क्षेत्र को
लगान की दरे बहुत बढ़ा दी गई जिससे किसानों में घोर असन्तोष व्याप्त था। इस समय पथिकजी
ने बिजौलिया के किसानों को वारानी भूमि छोड़ देने की सलाह दी। अत: मई 1927 में
किसानों ने अपनी-अपनी बारानी भूमि छोड़ दी। ठिकाने ने इन जमीनों को नीलाम कर दिया।
इससे किसानों के हितों को प्रबल आघात पहुँचा। पथिक आन्दोलन से अलग हो गए।
(7) किसानों द्वारा सत्याग्रह शुरू करना-
अब सेठ जमनालाल बजाज, हरिभाऊ 1931 को लगभग 400 किसानों ने अपनी छोड़ी हुई भूमि पर हल चलाना शुरू कर दिया।
इस पर उपाध्याय तथा माणिक्यलाल वर्मा ने किसान आन्दोलन का नेतृत्व
सम्भाल लिया। 21 अप्रेल, ठिकाने के कर्मचारी, पुलिस, सेना तथा जमीनों के नये
मालिक किसानों पर टूट पड़े। उनकी युरो तरह पिटाई की तथा उनके साथ अमानुषिक बर्ताव
किया। उसी दिन माणिक्यलाल वर्मा गिरफ्तार कर लिए गए। दूसरे दिन 200 किसान
भी बन्दी बना लिए गए। हरिभाऊजी ने किसानों पर किये जा रहे अत्याचारों से गाँधीजी
को अवगत कराया।
(8) जमनालाल बजाज तथा माणिक्यलाल वर्मा के समझौते के प्रयास-
20 जुलाई 1931 को सेठ जमनालाल बजाज उदयपुर पहुंचे और मेवाड़ के महाराणा
तथा प्रधानमंत्री सुखदेव प्रसाद से भेंट की। इस भेंट के फलस्वरूप एक समझौता
हुआ, जिसके अनुसार सरकार ने
आश्वासन दिया कि शनैः-शनैः किसानों को उनकी भूमि लौटा दी जाएगी, सत्याग्रही रिहा कर दिये
जायेंगे तथा 1922 के समझौते का पालन किया जायेगा। इस समझौते के अनुसार सत्याग्रही
रिहा कर दिये गये,
परन्तु किसानों
को उनकी जमीनें नहीं लौटाई गई। माणिक्यलाल वर्मा को गिरफ्तार कर कुम्भलगढ़
जेल में बन्द कर दिया गया। मेवाड़ सरकार ने डेढ वर्ष बाद वर्माजी को रिहा
तो कर दिया, परन्तु उन्हें मेवाड़ राज्य
से निर्वासित कर दिया।
(9) विजौलिया किसान आन्दोलन की समाप्ति-
24 नवम्बर,
1938 को बिजौलिया
किसान पंचायत ने एक प्रस्ताव पास किया जिसमें निर्णय लिया गया कि किसान लोग
प्रजामण्डल द्वारा संचालित आन्दोलन में भाग नहीं लेंगे। एक अन्य प्रस्ताव में यह
भी कहा गया कि यदि उनकी छोड़ी हुई जमीनें लौटा दी जाती हैं, तो वे भविष्य में किसी भी
आन्दोलन में भाग नहीं लेंगे। जून, 1939 में बिजौलिया के किसानों द्वारा भेजे गए आवोदन-पत्र पर मेवाड़ के महाराणा
ने उनकी भूमि लौटाने के आदेश दे दिए। 1941 में किसानों को उनकी भूमि लौटा दी गई।
इस प्रकार 1941 में विजौलिया किसान आन्दोलन समाप्त हो गया।
बिजौलिया किसान आन्दोलन के कारण
(1) जागीरदार की दमनकारी नीति-
बिजौलिया के जागीरदार की दमनकारी नीति के कारण किसानों में
तीव्र आक्रोश व्याप्त था। किसानों से मनमाने ढंग से लगान वसूल किया जाता था। जागीरदार
और उसके कर्मचारी किसानों का शोषण करते थे। जागीर में कोई लिखित नियम नहीं थे।
जागीरदार का आदेश ही कानून था। कृषकों को किसी प्रकार के अधिकार प्राप्त नहीं थे
(2) किसानों की दयनीय दशा-
बिजौलिया के किसानों की दशा बड़ी दयनीय थी। किसानों से मनमाने ढंग से
लगान वसूल किया जाता था। किसानों को अपनी उपज का आधा भाग लगान के रूप में
चुकाना पड़ता था। लगान के अतिरिक्त उनसे विभिन्न प्रकार की लागे वसूल की जाती थीं।
बिजौलिया में किसानों से लगभग 74 प्रकार की लागें वसूल की जाती थीं। किसानों को
बेगार करने के लिए भी बाध्य किया जाता था। किसानों को अपनी भूमि से बेदखल होने का
सदैव भय बना रहता था। इस प्रकार किसानों की दशा बड़ी दयनीय बनी हुई थी।
(3) किसानों पर चंवरी कर लगाना-
1903 में राव किशनसिंह ने बिजौलिया की जनता पर 'चँवरी' नामक एक नया कर लगा दिया।
इस लागत के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी कन्या के विवाह के अवसर पर 5 रुपये चँवरी
कर के रूप में जागीरदार को देने पड़ते थे। किसानों ने इस कर का विरोध किया और
उन्होंने जागीरदार से चंवरी कर को माफ करने की प्रार्थना की, परन्तु जागीरदार ने उनकी
प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया। इससे क्षुब्ध होकर बिजौलिया के किसान ग्वालियर
राज्य की ओर पलायन कर गए। इस पर जागीरदार किशनसिंह ने अपनी गलती महसूस की
और चंवरी कर माफ कर दिया। उसने लगान उपज के 1/2 भाग के स्थान पर 2/5 लेने
की भी घोषणा की।
(4) किसानों पर युद्ध-कोष का भार लादना-
1914 ई. में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो गया। युद्ध-कोष में धन जमा कराना
जागीरदारों के लिए भी आवश्यक था। जागीरदारों ने युद्ध कोष का भार किसानों पर लाद
दिया। प्रत्येक किसान से प्रति हल 14 रुपये के हिसाब से युद्धका चन्दा वसूल किया
जाने लगा। इससे किसानों में तीव्र आक्रोश व्याप्त था। इन परिस्थितियों में एक
व्यापक आन्दोलन अवश्यम्भावी हो गया। आवश्यकता कुशल नेतृत्व की थी। सौभाग्य से
बिजौलिया के किसानों को विजयसिंह पथिक का कुशल नेतृत्व प्राप्त हो
गया। विजयसिंह पथिक को ही बिजौलिया के किसानों को प्रारम्भिक सफलता दिलाने
का श्रेय प्राप्त है।
(5) राव किशनसिंह की अत्याचारपूर्ण
नीति-
1894 में राव किशनसिंह नया जागीरदार बना । उसको दमनकारी एवं
अत्याचारपूर्ण नीति से किसानों में तीन आक्रोश व्याप्त था। उसने किसानों से उपज का
आधा भाग तथा अनेक प्रकार की लागते वसूल करना शुरू कर दिया। बड़े हुए लगान तथा
लागों को चुकाने के बाद किसानों के पास कुछ नहीं बचता था। फलत: 1895 में किसानों
ने जागीरदार द्वारा लगाई गई अतिरिक्त लागतों का विरोध किया।
1897 में किसानों के प्रतिनिधि के रूप में नानजी पटेल तथा ठाकरी
पटेल जागीरदार के अत्याचारों के विरुद्ध उदयपुर के महाराणा से शिकायत करने के
लिए उदयपुर गए। वे उदयपुर में 6-7 महीने तक रहे । अन्त में महाराणा ने उनकी सुनवाई
की और राजस्व अधिकारी हामिद हुसैन को शिकायतों की जाँच के लिए बिजौलिया
भेजा। हामिद हुसैन ने अपनी रिपोर्ट में किसानों की शिकायतों को सही बताया, परन्तु मेवाड़ की सरकार
ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं की। इससे जागीरदार किशनसिंह के हौंसले बढ़ गये और
उसने नानजी पटेल तथा ठाकरी पटेल को अपनी जागीर से निष्कासित कर दिया।
(6) पृथ्वीसिंह की कठोर एवं दमनकारी
नीति-
1906 में राव किशनसिंह की मृत्यु हो गई तथा उसकी मृत्यु के बाद पृथ्वीसिंह
नया जागीरदार बना। उसने 1904 में दी गई सभी रियायतों को समाप्त कर दिया। उसने तलवार
बँधाई के रूप में मेवाड़ के महाराणा को एक बड़ी धनराशि दी थी, अत: उसने यह भार किसानों
पर डाल दिया। उसने किसानों पर नये कर लगाए, पुराने करों में वृद्धि की तथा उन्हें कठोरता से वसूल करने
की व्यवस्था की। इसके अतिरिक्त उसने तलवार-लाग नाम से एक नई लागत भी लगा
दी।
किसानों ने जागीरदार की अत्याचारपूर्ण नीति का विरोध किया और साधु सीता रामदास, फतहकरण चारण आदि की सलाह
पर ऊपरमाल के क्षेत्र को पड़त रखा। उन्होंने अपने जीवन-निर्वाह के लिए बूंदी और
ग्वालियर जाकर काम किया। जागीरदार ने दमनकारी नीति अनपाते हुए अनेक किसान नेताओं
को जेल में डाल दिया।
(7) जागीरदार के कर्मचारियों की मनमानी-
1914 में राव पृथ्वीसिंह की मृत्यु हो गई। उसका पुत्र केसरीसिंह
अल्पवयस्क था। अतः ठिकाने का प्रशासन मेवाड़ के महाराणा के नियन्त्रण में चला गया।
अल्पवयस्क केसरीसिंह की माता ने किसानों की मांगें स्वीकार कर ली तथा महकमा खास
उदयपुर के आदेशानुसार 24 जून, 1914 को किसानों को कुछ रियायतें दी गई। परन्तु ठिकाने के कर्मचारियों ने किसानों
को कोई सुविधा नहीं दी तथा पुरानी दरों से ही लागते वसूल करते रहे। किसानों की
आर्थिक स्थिति पुनः बिगड़ने लगी।
बिजौलिया किसान आन्दोलन का महत्त्व और परिणाम
(1) किसानों पर भीषण अत्याचार-
राजस्थान के देशी राज्यों के इतिहास में बिजौलिया किसान आन्दोलन का एक
विशिष्ट स्थान है। इस आन्दोलन में बिजौलिया के किसानों ने अत्यधिक धैर्य तथा साहस
का परिचय दिया। इस लम्बे संघर्ष में बिजौलिया के किसानों को भीषण अत्याचार और घोर
यातनाएँ सहन करनी पड़ी।
(2) किसानों में जागृति उत्पन्न होना-
इस आन्दोलन से किसानों में अपूर्व साहस का संचार हुआ। उनमें राजनीतिक चेतना
व जागृति उत्पन्न हुई और उनमें आत्मविश्वास तथा आत्मसम्मान की भावनाएँ उत्पन्न
हुई।
(3) स्वावलम्बी तथा अहिंसात्मक आन्दोलन-
यह आन्दोलन पूर्णतया स्वावलम्बी तथा अहिंसात्मक था। इस आन्दोलन
के संचालन में कहीं बाहर से धन व जन की सहायता प्राप्त नहीं की गई। इसका संचालन
स्थानीय पंचायतों के माध्यम से हुआ था। इस आन्दोलन में हिंसा का सहारा नहीं लिया
गया।
(4) आन्दोलन का पड़ोसी राज्यों में प्रसार-
भारत के इतिहास में यह अपने ढंग का एक अनूठा किसान आन्दोलन था, जो राज्य की सीमाएं
लांघकर पड़ोसी राज्यों में भी फैल गया।
(5) सामन्ती व्यवस्था को आघात-
बिजौलिया किसान आन्दोलन ने सामन्ती व्यवस्था को प्रबल आघात पहुँचाया। इसने सामन्ती
व्यवस्था के दोषों को उजागर किया। इस आन्दोलन ने राजस्थान के अन्य राज्यों के
कृषकों को सामन्तों के अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाने व संघर्ष करने के लिए
प्रोत्साहित किया।
(6) व्यापक आन्दोलन-
यह आन्दोलन एक व्यापक आन्दोलन था, जिसमें केवल पुरुषों ने ही भाग नहीं लिया, बल्कि स्त्रियों और
वालकों ने भी उत्साहपूर्वक भाग लिया। यह आन्दोलन दीर्घकाल तक चला और इसने अखिल
भारतीय रूप धारण कर लिया।
(7) संगठित आन्दोलन-
बिजौलिया किसान आन्दोलन राजस्थान में किसानों का प्रथम संगठित आन्दोलन था।
बिजौलिया के किसानों ने जागीरदार तथा मेवाड़ के महाराणा के अत्याचार सहते हुए इसे
भारत की राजनीति का प्रमुख आन्दोलन बना दिया। इसी कारण गाँधीजी को इस आन्दोलन में
हस्तक्षेप करना पड़ा तथा महाराणा को किसानों को न्यायोचित माँगें मानने के लिए
बाध्य होना पड़ा।
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