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राजस्थान में राजनीतिक जागृति के कारण

प्रत्येक देश में राजनीतिक चेतना उन अनेक शक्तियों का सामूहिक परिणाम होती है जो दीर्घकाल से उस देश में कार्यरत रहती है। भारत में 1870 के बाद शिक्षित वर्ग में राजनीतिक चेतना उत्पन्न हुई, जिसका अन्तिम परिणाम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के रूप में सामने आया। 

राजस्थान की स्थिति थोड़ी भिन्न थी। यहाँ की जनता दोहरी गुलामी झेल रही थी। एक तरफ तो रियासतों के शासकों के निरंकुश शासन की गुलामी थी तो दूसरी तरफ अंग्रेजों की। अत: राजस्थान में पराधीनता और विवशता का घना कुहरा सर्वत्र छाया हुआ था। फिर भी राष्ट्रवादी विचारधारा वाले लोगों और निर्भीक धर्म प्रचारकों के सहयोग से 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में राजस्थान में भी राजनीतिक जागृति उत्पन्न हुई।

राजस्थान में राजनीतिक जागृति के कारण

(1) किसान आन्दोलन-

कुछ विद्वानों ने भारत में हुए किसान आन्दोलनों को राजनीतिक जागृति का प्रमुख कारण बताया है। इन आन्दोलनों का लक्ष्य राजनीतिक नहीं था, फिर भी निरंकुश सत्ता के विरुद्ध आवाज उठाने से प्रचलित राजनीतिक व्यवस्था की आलोचना का मार्ग प्रशस्त हो गया। नये मध्यम वर्ग और राजनीतिक जागृति से प्रेरित लोगों ने किसानों की शिकायतों का समर्थन करके सत्ताधारी वर्ग को जनसामान्य के हितों का विरोधी बताया। शासकों और जागीरदारों के अनुत्तरदायो प्रशासन ने सम्पूर्ण राजनीतिक ढाँचे पर प्रश्न-चिह्न लगा दिया। फलस्वरूप न केवल किसानों में बल्कि जनसाधारण में भी राजनीतिक चेतना का विकास हुआ।

(2)  मध्यम वर्ग की भूमिका-

राजस्थान में प्रजामण्डलों के विकास में मध्यम वर्ग की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। इस वर्ग में वकील, शिक्षक, इंजीनियर, वैज्ञानिक, चिकित्सक, साहित्यकार, बुद्धिजीवी और व्यवसायी सम्मिलित थे। इनका मुख्य उद्देश्य भारत में राजनीतिक तथा राष्ट्रीय चेतना उत्पन्न करना था। इस वर्ग ने राजस्थान में जन-असन्तोष को नेतृत्व प्रदान किया। विजयसिंह पथिक, माणिक्यलाल वर्मा, रामनारायण चौधरी, हरिभाऊ उपाध्याय, जोधपुर में मास्टर जयनारायण व्यास, बीकानेर में वकील रघुवरदयाल, अलवर के मास्टर भोलाराम, सिरोही के गोकुलभाई भट्ट, जयपुर में प. हीरालाल शास्त्री सभी मध्यम वर्ग के प्रतिनिधि थे।

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राजस्थान में राजनीतिक जागृति के कारण

इस वर्ग के शिक्षित युवकों का प्रभावी राष्ट्रवाद और स्वतन्त्रता के महान् आदर्शों से सम्पर्क हुआ और वे राजस्थान को मध्ययुगीन निरंकुश सामन्ती व्यवस्था जो ब्रिटिश शासन की आधार-स्तम्भ बनी हुई थी को उखाड़ फेंकने के लिए कटिबद्ध हो चुके थे।

(3)  समाचार पत्रों की भूमिका-

विजयसिंह पथिक, रामनारायण चौधरी, जयनारायण व्यास आदि नेताओं ने विभिन्न समाचार-पत्रों के माध्यम से राज्य की समस्याओं की चर्चा की जिससे राजस्थान में राजनीतिक चेतना का विकास हुआ। 1920 में पथिकजी ने 'राजस्थान केसरी' का प्रकाशन अजमेर से किया। 1922 ई. में भील व बिजौलिया आन्दोलन का समर्थन 'राजस्थान सेवासंघ' ने नवीन राजस्थान पत्र प्रकाशित करके किया। 1923 ई. में तरुण राजस्थान पत्र प्रकाशित हुआ जिसमें अलवर के निमूचणा काण्ड व कृषक आन्दोलन का विवरण था। इस प्रकार अनेक समाचार-पत्रों के माध्यम से राजस्थान में राजनीतिक जागृति फैली।

(4)  स्वदेशी आन्दोलन-

1905 ई. बंग-भंग आन्दोलन के दौरान स्वदेशी आन्दोलन को अधिक महत्त्व दिया गया तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया जाने लगा। राजस्थान में स्वदेशी आन्दोलन बाँसवाड़ा, सिरोही, मेवाड़ और डूंगरपुर में शुरू हुआ। सिरोही में 'सभ्य समाज संस्था' की स्थापना की गई जिसने विदेशी कपड़ों का बहिष्कार, नागरिकों को मद्यपान छुड़ाने और राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष का आह्वान किया। इससे ब्रिटिश सरकार सतर्क हो गई और इस आन्दोलन का दमन करने का आदेश दे दिया गया। इससे सभी शासक प्रभावित हुए और क्रान्तिकारियों के संगठन में शामिल होने व उनका साहित्य पढ़ने पर दण्डनीय अपराध की घोषणा कर दी। इस प्रकार अन्त में सरकार की दमन नीति के परिणामस्वरू स्वदेशी आन्दोलन समाप्त हो गया लेकिन इससे भारत में राजनीतिक चेतना की लहर दौड़ गई।

(5) क्रान्तिकारी साहित्य का योगदान-

राजस्थान में क्रान्तिकारी साहित्य की रचना बहुत पहले से ही आरम्भ हो गई थी। बाकीदास और सूर्यमल्ल मिश्रण की रचनाएँ देश-भक्ति की भावनाओं से ओतप्रोत थी। केसरीसिंह बारहठ की रचनाओं ने भी देश-भक्ति की भावनाओं का प्रसार किया। उन्होंने चेतावनी रा चुंगटिया नामक कविता की रचना की जिसको पढ़कर मेवाड़ के महाराणा फतेहसिंह ने 1930 ई. में आयोजित दिल्ली दरबार का बहिष्कार कर दिया। इस प्रकार क्रान्तिकारी साहित्य ने भी राजस्थान में जनजागृति में अपना योगदान दिया।

(6) आर्य समाज आन्दोलन-

आर्य समाज आन्दोलन श्रमिक सुधार आन्दोलन होते हुए भी वह राजस्थान में राजनीतिक जागरण में परोक्ष रूप से सहायक हुआ। देशी राज्यों के शासक आर्य समाज के प्रति अरुचि दिखाते थे तथा कुछ शासकों (जयपुर, धौलपुर, बीकानेर) ने इसके विरुद्ध नीति अपनाई, किन्तु स्वामी दयानन्द ने इन शासकों, सामन्तों, प्रतिष्ठित नागरिकों के साथ बातचीत के दौरान चार बातों पर ध्यान दिया-स्वधर्म, स्वराज्य, स्वदेशी और स्वभाषा। उनकी शिक्षाओं ने न केवल राजस्थान के लोगों में अपितु भारत के अन्य भागों में भी राजनीतिक चेतना का विकास किया। इनका केन्द्र अजमेर में स्थित था। यहाँ के शासकों व प्रमुख जमींदारों को स्वामी दयानन्द सरस्वती ने काफी प्रभावित किया। इस प्रकार स्वामी दयानन्द ने राजस्थान के लोगों को न केवल सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों की आवश्यकता को ही अनुभूति कराई, अपितुल राजनीतिक सुधारों के प्रति भी जागरुक बना दिया।

(7) प्रथम महायुद्ध का प्रभाव-

राजस्थान के राज्यों के लोगों को प्रथम महायुद्ध ने भी बहुत उद्वेलित किया। विश्व-युद्ध में भाग लेने गये राजपूत राज्यों के सैनिक बाह्य दुनिया के सम्पर्क में आये और अपनी जन्म-भूमि से दूर इन देशों में स्वतन्त्रता के नये विचारों और आदर्शों का अनुभव कर आश्चर्य चकित रह गये। स्वदेश लौटने पर उन्होंने अपने मित्रों, पड़ोसियों तथा अन्य लोगों को अपने अनुभव प्रभावित किया। यद्यपि राजपूत शासकों ने युद्ध-कोँषो में भारी धनराशि दी कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत धन में से एक भी पैसा खर्च नहीं किया। सारा भार जनता व राजकोष पर आ गया राजस्थान की जनता पहले ही करों में दबी हुई थी और अब युद्ध-कोँषो में दिये जाने वाले चन्दे के भार ने उसकी वित्तीय कठिनाईयो को और बढ़ा दिया। परिणामस्वरूप राजस्थानी जनता ने भी अपने असन्तोष को व्यक्त करने के लिए आन्दोलनात्मक मार्ग अपनाया।

(8) राजस्थान का गौरवपूर्ण अतीत-

यद्यपि 1857 की क्रान्ति में राजस्थान के अनेक राजपूत नरेशो ने अंग्रेजों का साथ दिया, परन्तु अपने प्राचीन गौरवपूर्ण को अतीत को याद कर अनेक राजपूत नरेश अंग्रेज विरोधी हो गये। उदयपुर के महाराणा फतेहसिंह राष्ट्रीय विचारों से ओत-प्रोत थे। उन्होंने अपने प्रशासन में अंग्रेज रेजीडेन्ट को हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं दी। उन्होंने अपने राज्य में नियुक्त अधिकारियों को नौकरियों से हटा दिया। उन्होंने प्रसिद्ध क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्णा वर्मा को अपना प्रधानमन्त्री नियुक्त किया।

उसी प्रकार अलवर के नरेश जयसिंह भी उदारवादी विचारधारा के शासक थे। उन्होंने अपने राज्य में हिन्दी भाषा को प्रोत्साहन दिया। अंग्रेजों के दबाव के कारण जयसिंह को अलवर छोड़कर यूरोप जाना पड़ा परन्तु उनके जाने के बाद भी अलवर में राजनीतिक चेतना शिथिल नहीं पड़ी। भरतपुर शासक ने भी उदारवादी विचारों का प्रचार किया। इस प्रकार राजस्थान के शासक वर्ग के साथ-साथ जनसाधारण पर भी गौरवपूर्ण अतीत का गहरा प्रभाव पड़ा।

(9) पड़ौसी प्रान्तों का प्रभाव-

20वीं सदी में मध्यम वर्ग ने न केवल ब्रिटिश भारत के प्रान्तों में ही वरन् भारत की देशी रियासतों की जनता में भी राजनीति चेतना भरने का भरसक प्रयास किया। इस वर्ग के नेताओं ने सरकार को प्रतिवेदन प्रस्तुत करके सार्वजनिक सभाओं, राष्ट्रीय खेलों के द्वारा प्रशासन की कमियों को उजागर किया। फलत: ब्रिटिश भारत के अनेक प्रान्तों में कई संगठनों का उदय हुआ। प्रान्तों में असन्तोष फैल चुका था जिसका प्रभाव रियासतों की जनता पर भी पड़ने लगा। इस प्रकार राजपूत राज्यों की जनता ने भी राजनीतिक चेतना में योगदान दिया।

(10) राजस्थान सेवा संघ-

1919 ई. में अर्जुन लाल सेठी, केशरीसिंह बारहठ और विजयसिंह पथिक तीनों को सामान्य क्षमादान से रिहा कर दिया गया। इन तीनों ने गाँधीजी की प्रेरणा से वर्धा में राजस्थान सेवा संघ की स्थापना की । 1920 ई. में इसका कार्यालय अजमेर में हो गया। इससे राजस्थान के लोगों में राजनीतिक जागरण हुआ। इस संघ ने बिजौलिया, बेगें, सिरोही के किसानों की शिकायतों का पर्दाफाश किया। इस संघ ने राजस्थान केसरी में राजस्थान के राज्यों में राजनीतिक जागृति पैदा करने की दृष्टि से अजमेर में एक पत्र निकालने का निश्चय किया। नवीन राजस्थान नामक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया। तरुण राजस्थान पत्रिका में अर्जुनलाल सेठी व केशरी सिंह बारहठ लेख लिखते थे। इस प्रकार सामूहिक प्रयासों ने समाचार-पत्र को राजस्थान की जनता के विचारों का प्रतिनिधि बना दिया। अन्त में राजस्थान सेवा संघ को भंग कर दिया गया किन्तु राजस्थान में इस संघ ने राजनीतिक चेतना उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

(11) अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् की स्थापना-

1920 ई. में देशी राज्यों में राजनीतिक चेतना जागृत करने के लिए अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद् की स्थापना हुई। इसका मुख्य उद्देश्य देशी राज्यों की जनता को अपने हितों के प्रति जागरुक करना था। इस परिषद् के अधिवेशन में यह तय किया गया था कि प्रत्येक देशी रियासत में इसकी शाखा स्थापित की जाये और शाखा अपना वार्षिक अधिवेशन करे। राजस्थान में भी अनेक रियासतों में इस परिषद् की शाखायें स्थापित की गई जिससे राजस्थान में राजनीतिक चेतना जागृत हुई।

(12) राजस्थान मध्य भारत सभा का योगदान-

राजस्थान में राजनीतिक चेतना को बढ़ावा देने के लिए देशी रियासतों के प्रमुख कर्मठ कार्यकर्ताओं ने 1919 में कांग्रेस के दिल्ली अधिवेशन के दौरान आपसी वार्ता के बाद एक पृथक् संस्था स्थापित करने का निश्चय किया। इस नई संस्था का नाम 'राजस्थान मध्य भारत सभा' रखा गया। इसका प्रथम अधिवेशन 29 दिसम्बर, 1919 ई. को दिल्ली के चाँदनी चौक स्थित मारवाड़ी पुस्तकालय भवन में जमनालाल बजाज की अध्यक्षता में हुआ। इसका मुख्य उद्देश्य रियासतों की जनता को राष्ट्रीय कांग्रेस को गतिविधियों से परिचित करवा कर उनमें राजनीतिक चेतना का विकास करना था। इस प्रकार राजस्थान मध्य-भारत सभा ने भी राजस्थान में राजनीतिक चेतना को बढ़ावा दिया।

(13) क्रान्तिकारी गतिविधियों का प्रभाव-

1905 में लार्ड कर्जन ने बंगाल का विभाजन कर दिया जिससे भारत के राष्ट्रवादियों में तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ। उसके फलस्वरूप उग्र राष्ट्रवाद का उदय हुआ और सम्पूर्ण भारत में क्रान्तिकारी गतिविधियाँ शुरू हो गई। राजस्थान में भी क्रान्तिकारी आन्दोलन शुरू हो गया। राजस्थान में क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रमुख नेता केसरीसिंह बारहठ, ठाकुर गोपालसिंह, अर्जुनलाल सेठी, दामोदर दासराठी आदि थे। इनके प्रयासों से राजस्थान में 'अभिनव भारत भारती' नामक एक क्रान्तिकारी संस्था की स्थापना की गई। इस संस्था के माध्यम से क्रान्तिकारियों को प्रशिक्षण दिया जाता था। 1912 में जब भारत के गवर्नर जनरल लार्ड हार्डिंग दिल्ली में जुलूस में हाथी पर सवार होकर चाँदनी चौक में से गुजर रहे थे, तो क्रान्तिकारियों ने उन पर बम फेंका। बम फेंकने वाले क्रान्तिकारियों में राजस्थान के दो नवयुवक जोरावरसिंह तथा प्रतापसिंह भी थे।

प्रतापसिंह, केसरीसिंह बारहठ का पुत्र था। उसे 1917 में बनारस पड्यन्त्र अभियोग में पकड़ा गया और उसे 5 वर्ष की सजा दी गई। उसे जेल में भीषण यातनाएं दी गई जिसके फलस्वरूप 27 मई, 1918 को उसकी मृत्यु हो गई।

केसरीसिंह एक प्रसिद्ध क्रान्तिकारी थे। इन्होंने कोटा में क्रान्तिकारियों का एक दल संगठित किया। इन्होंने राजस्थान में गुप्त क्रान्तिकारी समितियों के गठन की योजना बनाई। एक हत्या कर अपराध में केसरीसिंह को भी बन्दी बना लिया गया और उन्हें 20 वर्ष के कारावास की सजा दी गई। उन्हें बिहार के हजारो बाग की जेल में रखा गया। बाद में उन्हें कोटा जेल में रखा गया। 1919-20 में अन्य राजनीतिक बन्दियों के साथ उन्हें भी रिहा कर दिया गया।

राजस्थान में राजनीतिक चेतना को उत्पन्न करने वालों में केसरीसिंह और प्रतापसिंह के नाम आज भी श्रद्धा के साथ लिये जाते हैं। रास बिहारी बोस ने कहा था भारत में एक मात्र ठाकुर केसरी सिंह ही एक ऐसे क्रान्तिकारी हैं जिन्होंने भारत माता की दासता की श्रृंखलाओं को काटने के लिए अपने समस्त परिवार को स्वतन्त्रता के युद्ध में झोंक दिया।"

अर्जुनलाल सेठी ने भी राजस्थान के क्रान्तिकारी आन्दोलनों में उल्लेखनीय योगदान दिया। ठाकुर गोपालसिंह भी राजस्थान के प्रसिद्ध क्रान्तिकारी थे। उनका मुख्य कार्य क्रान्तिकारियों के लिए अस्त्र-शस्त्रों की व्यवस्था करना था।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि राजस्थान में राजनीतिक चेतना अनेक गतिविधियों का परिणाम था। अंग्रेजों की दमनपूर्ण नीति एवं देशी शासकों की निरंकुश प्रवृत्ति ने राजस्थानी जनता को असन्तुष्ट कर दिया। अत: जनता ने अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए संगठित होकर आन्दोलन का निश्चय किया।

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