प्रथम महायुद्ध (The First World War)
यूरोप में होने
वाला यह एक वैश्विक युद्ध था जो 28 जुलाई 1914 से 11 नवंबर 1918 तक
चला था। इसे महान् युद्ध या "सभी युद्धों को समाप्त करने वाला युद्ध"
के रूप में जाना जाता था। इस युद्ध ने 6 करोड़ यूरोपीय व्यक्तियों (गोरों) सहित 7
करोड़ से अधिक सैन्य कर्मियों को एकत्र करने का नेतृत्व किया, जो इसे इतिहास के सबसे
बड़े युद्धों में से एक बनाता है।
यह इतिहास में
सबसे घातक संघर्षों में से एक था, जिसमें अनुमानित 9 करोड़ लड़ाकों की मौत और युद्ध के
प्रत्यक्ष परिणाम के स्वरूप में 1.3 करोड़ नागरिकों की मृत्यु हुईं।
यह युद्ध मानव इतिहास का अब तक लड़ा जाने वाला सबसे अद्भुत युद्ध था। यह युद्ध बड़ी दृढ़ता और घनघोर रूप से लड़ा गया, युद्धरत राष्ट्रों के लिये यह मानो अस्तित्व का युद्ध हो। बाद में यह उच्च आदर्शों से प्रेरित हुए। इसमें लड़ने वाले अन्ततः थक गये और पस्त हो गये। इस युद्ध से दोनों ही पक्षों की अप्रत्याशित हानि हुई। इस युद्ध के महादानवी रूप का प्रकटीकरण होने से युद्धरत राष्ट्र चकित थे, क्योंकि इतने व्यापक और विशाल स्तर पर विध्वंस लीला अब तक देखने में नहीं आयी थी। ऐसा प्रतीत होता था कि नवीन राष्ट्रों ने जो शक्ति एकत्रित की थी, उसका विश्व कल्याण के रूप में इस्तेमाल होना मुमकिन नहीं था।
प्रथम विश्व युद्ध और उसके कारण |
युद्ध के कारण
प्रथम विश्व
युद्ध किसी एक आकस्मिक घटना के कारण नहीं हुआ। यह सही है कि इसका प्रारम्भ आस्ट्रिया
के युवराज आर्चड्यूक फर्डीनेण्ड की हत्या के एक मास उपरान्त हुआ।
लेकिन यही इसका एक मात्र कारण नहीं था। इस युद्ध के कारण वर्षों से यूरोप, अफ्रीका व एशिया में घटने
वाली घटनाओं से उत्पन्न होते जा रहे थे। इस युद्ध में कई देशों ने भाग लिया। इन
राष्ट्रों ने युद्ध में भाग अपने-अपने स्वार्थों के कारण लिया होगा। अत: इस युद्ध
के कारण निम्नलिखित होने चाहिये-
1. राष्ट्रवाद (Nationalism)-
जर्मनी तथा इटली
का एकीकरण राष्ट्रवाद की बढ़ती भावना का प्रतिफल था। उग्रराष्ट्रवाद का स्वरूप उस
समय देखने में आया जब आस्ट्रिया-हंगरी साम्राज्य के अधीन विभिन्न राज्य, जो सांस्कृतिक दृष्टि से
आस्ट्रिया से कोई साम्य नहीं रखते थे, प्रतिक्रिया वादी शक्तियों द्वारा दमन चक्र के शिकार हुए।
समय-समय पर उन पर सैन्य अत्याचार भी किये गये और उनके विभिन्न स्वतन्त्रता आन्दोलनों
को कुचल दिया गया। इसी प्रकार तुर्की साम्राज्य जब पतनशील अवस्था में पहुँच गया तो
इस मरणासन्न राज्य के अधीन रहने वाली जातियाँ जो स्वतन्त्रता की आकांक्षी थीं, उन्होंने उग्रता धारण की।
विभिन्न यूरोपीय राज्यों ने इस समस्या में शक्ति सन्तुलन बिगड़ने के भय से
हस्तक्षेप किया। इस तरह रूस में स्लावद की भावना को बल मिला।
उन्नीसवीं
शताब्दी में स्लाववाद जाति के लोग पूर्वी यूरोप में तुर्की शासन के अधीन
पीड़ित थे। रूस ने इस चुनौती को स्वीकारा और स्वयं को उन उत्पीड़ित स्लाव लोगों का
मुक्तिदाता माना। पोलैण्ड भी विदेशी शासकों से मुक्त होना चाहता था। सबसे
ज्वलंत प्रश्न एल्सास और लारेन का था। 1870 में बिस्मार्क ने जर्मन जनता के उत्साह
से प्रेरित होकर बहुत बड़ी कूटनीतिक भूल की थी, जब उसने एल्सास और लारेन प्रदेश फ्रांस से छीन लिये थे।
फ्रांस और जर्मनी में इन प्रदेशों को लेकर तीव्र मतभेद था। फ्रांस जर्मनी से
प्रतिशोध लेने के लिये अवसर की तलाश में था। कभी भी प्रतिशोधात्मक युद्ध भड़कने का
भय था। देश भक्ति की यह भावना शान्ति विरोधी थी, देशभक्त यह मानते थे कि समस्या का हल केवल युद्ध से ही निकल
सकता है। यूरोप में जर्मन और इंग्लैण्ड शक्तिशाली बन जाने पर जर्मन अपनी जाति को
विश्व में सर्वश्रेष्ठ समझने लगा और इंग्लैण्ड अपने लोगों को विश्व में सर्वोच्च
समझता था। जर्मनी के चान्सलर वेथमैन हालवेग का कहना था-
"कि ईश्वर
ने जर्मन जाति को संसार में विशेष स्थान दिया है।"
इसके विरोध में इंग्लैण्ड
का सेसिल कहता था कि, "मेरा दावा है कि अब तक इतिहास में जितनी जातियाँ उत्पन्न
हुईं, ब्रिटिश उनमें
सर्वश्रेष्ठ हैं।"
इस प्रकार
विभिन्न इतिहासकारों ने उग्रराष्ट्रवाद को प्रथम विश्व युद्ध का महत्वपूर्ण
कारण माना है।
2. बाल्कन युद्ध (Balkan
war)-
जिस प्रकार
बर्लिन कांग्रेस ने बाल्कन-प्रायद्वीप की समस्या को हल न करके इसे और जटिल ही
बनाया था, उसी प्रकार बाल्कन
युद्धों से भी यह पूर्वी समस्या हल नहीं हुई वरन् और जटिल ही हो गयी। यहाँ पर एक
नहीं यूरोप के दर्जनों राष्ट्रों के हित टकराने लगे। बल्गरिया अपने पड़ोसी राज्यों
का कट्टर शत्रु हो गया। बाल्कन युद्धों में प्रादेशिक नुकसान जितना बल्गारिया को
हुआ, उतना अन्य राज्य को नहीं।
अपमान भी उसी का हुआ। लन्दन सम्मेलन टर्की के साम्राज्य को नहीं बचा सका। अत:
टर्की भी इंग्लैण्ड और फ्रांस के विरुद्ध हो गया। इटली को ट्रिपोली नहीं मिला तो
वह बुखारेस्ट से असन्तुष्ट ही रहा। इस सन्धि से सर्वाधिक लाभ सर्बिया को हुआ था।
इसके फलस्वरूप वह घमण्डी हो गया।
इसीलिये बुरवारेस्ट
की सन्धि पर उसने सगर्व कहा था कि, "एक बाजी तो हम लोग जीत
गये, अब दूसरी बाजी को तैयारी
करनी है और वह भी आस्ट्रिया के साथ।" सर्बिया के प्रतिनिधि के
ये शब्द एक प्रकार से आस्ट्रिया को चेतावनी के शब्द थे। इसलिये हेजन तो बाल्कन
युद्ध को प्रथम विश्व युद्ध की प्रस्तावना मानता है। इतिहासकार ग्रान्ट और टेम्परले
भी बाल्कन युद्ध को प्रथम विश्व युद्ध के लिये उत्तरदायी बताते हैं। वे
लिखते हैं कि "1914 के महायुद्ध के लिये कोई भी घटना इतनी उत्तरदायी नहीं है, जितनी कि बाल्कन युद्ध।
इस युद्ध ने
तुर्कों का पतन करके शक्ति संतुलन को प्रभावित किया। सर्बिया ने बोस्निया के अपमान
का बदला लिया। सर्बिया के राष्ट्रीय आन्दोलन के परिणामस्वरूप कालान्तर में
युगोस्लाविया का जन्म हुआ। यूनान वृहत्तर यूनान का, रूमानिया वृहत्तर रूमानिया का और सर्बिया वृहत्तर सर्बिया
का स्वप्न देखने लगे। आस-पास के देशों में रहने वाले यूनानी रूमानियन और सब अपने
उद्धार के लिए इन देशों की ओर देखने लगे। बाल्कन युद्धों के उपरान्त आस्ट्रिया और
तुर्की के अधीन अन्य जातियाँ भी अपनी स्वतन्त्रता के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन करने
लगीं। इस प्रकार लन्दन-सम्मेलन (1913) के उपरान्त भी बाल्कन प्रदेश यूरोपीय
राजनीति का गर्म अखाड़ा ही बना रहा।
3. कूटनीतिक
सन्धियाँ (Diplomatic treaties)-
यूरोप में इटली
के एकीकरण और जर्मनी के एकीकरण ने ऐसे युग को जन्म दिया जो गुप्त सन्धियों
का युग था। उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ बनीं जिनकी वजह
से बिस्मार्क को गुप्त सन्धियाँ अपने देश को स्वतन्त्र करने के लिये करनी पड़ी।
यूरोप का कोई भी राष्ट्र जर्मनी को स्वतन्त्र नहीं देखना चाहता था। मध्य यूरोप में
शक्तिशाली राष्ट्र का जन्म सभी यूरोपीय राष्ट्रों के लिये खतरा था। बिस्मार्क
इस सच्चाई से परिचित था। अत: उसने बड़ी दक्षता से हमेशा अपने सीमित उद्देश्यों को
प्राप्त करने के लिए गुप्त सन्धियाँ की ताकि यूरोपीय राष्ट्र एक जुट होकर उसके
उद्देश्य को परास्त न करें। बिस्मार्क ने विभिन्न राष्ट्रों को विभाजित और राजनीति
में गुप्त सन्धियों के माध्यम से अकेला रखा।
è यह भी देखें ¦ द्वितीय विश्व युद्ध के कारण एवं परिणाम
परिणामतः समस्त
यूरोप में आपसी सन्देह और मन्त्रणाओं का वातावरण दिखाई देने लगा। निरन्तर असुरक्षा
और भय ने अफवाहों और युद्धों की सरगर्मियों को बढ़ावा दिया। सौहार्द और मैत्री का
माहौल समाप्त हो गया। राष्ट्र स्वार्थ सर्वोपरि था। इसलिये सैन्य शक्ति बढ़ाने की
होड़ हर राष्ट्र में प्रारम्भ हो गयी।
बिस्मार्क ने फ्रांस को पराजित
करने के बाद जर्मनी की सुरक्षा के लिये आस्ट्रिया तथा इटली से गुप्त सन्धियों के
माध्यम से त्रिगुट का निर्माण किया। फ्रांस ने भी अपनी सुरक्षा की चिन्ता
में रूस और इंग्लैण्ड से मैत्री कर ट्रिपल एतांत (Triple Entente) का गठन किया। इस ट्रिपल
एतांत का 1914 तक निरन्तर नवीनीकरण होता रहा। यद्यपि इटली त्रिगुट का सदस्य था, लेकिन इटली ने समय-समय पर
फ्रांस, रूस और ब्रिटेन आदि देशों
के साथ मिलकर युद्ध लड़े थे। इससे यह सिद्ध होता है कि हर राष्ट्र के लिये स्वार्थ
और तात्कालिक परिस्थिति ही महत्वपूर्ण बिन्दु थे। इसके साथ ही कई बार एक राष्ट्र
की सन्धि की शर्तों के अनुसार दूसरे राष्ट्र को समर्थन एवं सहयोग देना पड़ता था, भले ही उस राष्ट्र की
राजनीतिक आवश्यकता नहीं भी हो।
यूरोप के पाँच
प्रमुख राष्ट्र परस्पर इन सन्धियों के माध्यम से सन्तुलन बनाये रखते थे। कोई भी
राष्ट्र अल्पमत में नहीं रहना चाहता था। प्रारम्भिक शिथिलता के बाद इन सन्धियों
में कसावट आ गयी,
क्योंकि विरोधी
राष्ट्रों में यह भावना दृढ़ हो रही थी कि भविष्य में युद्ध अनिवार्य है।
4. अस्त्र-शस्त्रों
की होड़ (Armed race) सैन्यवाद-
उन्नीसवीं सदी के
उत्तरार्द्ध की एक विशेषता सैनिकवाद भी रही है। यूरोप के देशों ने अपनी सैन्य
वृद्धि की। 1862 में बिस्मार्क ने प्रशा में सैनिक शिक्षा को अनिवार्य किया तो
1866 में यह शिक्षा आस्ट्रिया में अनिवार्य कर दी गयी। जर्मनी से परास्त होने पर
फ्रांस को भी अपने यहाँ सैनिकवाद को प्रबल बनाना पड़ा। रूस में राजतन्त्र होने के
कारण जार का अस्तित्व ही सेना के आधार पर टिका हुआ था। यदि एक एक राष्ट्र अपनी
सुरक्षा की दृष्टि से सेना को सुदृढ़ बनाता तो उसका पड़ोसी देश उस पर शंका करता
तथा वह भी अपनी सुरक्षा के बहाने सेना में वृद्धि करने लग जाता। सेना में वृद्धि
के साथ-साथ शस्त्रों की संख्या में वृद्धि हुई। जब यूरोप के देशों में इस प्रकार
सेना व शस्त्रों के बढ़ाने की होड़ लग गयी तो यूरोप सैनिकवाद भी चपेट में आ गये।
उन देशों की सरकार को भी उनकी योजनाओं का पता नहीं चलता था। कर्नल हाउस, जिसे अमेरिका के
राष्ट्रपति विल्सन ने मई, 1914 में यूरोप
के मौजूदा हालात जानने के लिये भेजा था, उसकी टिप्पणी उस युग में बढ़ते हुए सैन्यवाद को समझने के
लिये पर्याप्त है। कर्नल हाउस के शब्दों में, "यूरोप में सैन्य उन्माद विद्यमान है। किसी छोटी सी चिनगारी
की आवश्यकता है और आग भड़क जायेगी ।"
ब्रिटेन और
जर्मनी में नौसेना सम्बन्धी कटु प्रतिद्वन्द्विता देखने में आई। यूरोप में जर्मनी
सबसे प्रभावशाली और सैन्य दृष्टि से शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभर कर आ चुका
था। दूसरी तरफ इंग्लैण्ड समुद्री शक्ति के रूप में सबसे शक्तिशाली राष्ट्र के रूप
में था। बिस्मार्क के बाद जब कैसर ने जर्मनी की नाविक शक्ति को बढ़ाने के लिये बल
दिया तो इंग्लैण्ड ने इसका विरोध किया।
सैन्य वृद्धि के नियन्त्रण के लिये
1899 तथा 1907 के हेग सम्मेलनों का योगदान प्रमुख है, किन्तु सम्मेलनों में
सैन्य वृद्धि को लेकर कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया। शायद इसलिये कि सम्बन्धित राष्ट्र
अपने राष्ट्र के हितों को अन्तर्राष्ट्रीय हितों से ऊपर मानते थे। धीरे-धीरे
यूरोपीय राष्ट्र भय के घेरे में सिमटते गये, इस भय के गहराने से उन्हें सैन्य सामग्री जुटाने में, सैन्य भर्ती करने में
ज्यादा से ज्यादा धन खर्च करना पड़ रहा था। उदाहरण के लिये, शान्ति काल में भी
आस्ट्रिया-हंगरी और रूस छ: प्रतिशत से भी ज्यादा राष्ट्रीय आय को सैन्य क्षेत्र
में लगा रहे थे। यह चलन वर्ष 1914 तक चलता रहा।
5. सीमा सम्बन्धी
झगड़े-
सीमा सम्बन्धी झगड़े विभिन्न
राष्ट्रों में 19वीं सदी से ही चले आ रहे थे। इन झगड़ों को 1815 में वियना
कांग्रेस ने तय करने का प्रयास किया था। कई नवीन राज्य बनाये गये। इस पर
कांग्रेस ने आत्म निर्णय के सिद्धान्त को ताक में रख दिया था। इटली-आस्ट्रिया
-हंगरी के कुछ ऐसे प्रदेशों को लेना चाहता था जिनके अधिकांश निवासी इटेलियन
भाषा-भाषी थे। फ्रांस को 1870 में परास्त कर जर्मनी एल्सेस व लोरेन को अपने
प्रभुत्व में ले चुका था। फ्रांस इन दोनों प्रदेशों को पुनः प्राप्त करने को
कटिबद्ध था। पूर्वी यूरोप में चेक्स व पोल्स अपनी स्वतन्त्रता के
लिये छटपटा रहे थे। बाल्कन युद्धों ने इन सीमा सम्बन्धी झगड़ों को और विषम
बना दिया था। इस विषमता से यूरोपीय देशों में कटुता उत्पन्न हो गयी थी। एक राष्ट्र
दूसरे राष्ट्र को परास्त करने को उद्यत बैठा था।
6. औद्योगिक क्षेत्र
में प्रतिस्पर्धा-
इंग्लैण्ड ने तो
उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भ में ही व्यवसाय के क्षेत्र में पर्याप्त उन्नति कर ली थी; किन्तु इटली और जर्मनी
सन् 1870 के उपरान्त इस क्षेत्र में प्रविष्ट हुए थे। बीसवीं सदी के प्रारम्भ तक
इन दोनों देशों ने भी इस क्षेत्र में पर्याप्त प्रगति कर ली थी। इन देशों के अलावा
फ्रांस और रूस भी इस क्षेत्र में आगे बढ़ रहे थे। फ्रांस तो रूस से कहीं आगे बढ़
चुका था। इसलिये अफ्रीका के विभाजन में उसके स्वार्थ ब्रिटेन से टकरा रहे थे।
इसी प्रकार
सुदूर-पूर्व में जापान औद्योगिक क्षेत्र में तीव्रता से आगे बढ़ रहा था। उसके
औद्योगिक विकास के कारण उसके सम्बन्ध रूस से तथा चीन से बिगड़ गये थे। अमेरिका भी
औद्योगिक विकास में अब पीछे नहीं था। वह चीन में अपना प्रभाव जमा रहा था और अपने
मार्ग में जापान को बाधक समझता था। उससे भी अन्तर्राष्ट्रीय जगत में कई राजनीतिक
परिवर्तन आयें,
जिनसे प्रथम
विश्व युद्ध की संभावना में वृद्धि हुई।
7. अन्तर्राष्ट्रीय
अराजकता-
बीसवीं सदी के प्रारम्भ
में कोई अन्तर्राष्ट्रीय संघ नहीं था। अन्तर्राष्ट्रीय संघ की अनुपस्थिति में
विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय अराजकता व्याप्त हो गयी थी। राष्ट्र अपनी इच्छानुसार
कार्य करते थे। शक्तिशाली राष्ट्ररूपी मगर छोटे व निर्बल राष्ट्ररूपी मछलियों को
निगल रहे थे। उन्हें रोकने वाला कोई नहीं था। नेपोलियन की आक्रामक नीति पर
नियन्त्रण करने हेतु इंग्लैण्ड, आस्ट्रिया, प्रशा व रूस ने एक संघ
बनाया। हेग में एक अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना अवश्य हो गयी थी। किन्तु
उनके पास कोई ऐसी शक्ति नहीं थी, जिसके माध्यम से
वह आक्रामक देशों को नियन्त्रण में रख सकता। इससे स्पष्ट है कि बीसवीं सदी में
विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय अराजकता का राज्य था।
8. जर्मनी की
सामुद्रिक नीति-
विश्व में
सामुद्रिक शक्ति इंग्लैण्ड की प्रथम थी और आज भी उसकी ही प्रथम है। महत्वाकांक्षी
विलियम ने बीसवीं सदी के आरम्भ से ही अपनी नौसेना को बढ़ाना आरम्भ कर दिया था।
उसने एक समय कहा था-
"मैं तब तक
विश्राम नहीं लूँगा, जब तक कि अपनी
जलसेना को इतना शक्तिशाली नहीं बना लूँगा, जितनी की मेरी थल सेना
है।"
जर्मनी की नौसेना
की वृद्धि से इंग्लैण्ड चिन्तित हुआ। उसने जर्मनी से सन्धि करने का बहुत प्रयास
किया, किन्तु वह असफल ही रहा।
संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का भी सन् 1917 ई. में इस महायुद्ध में भाग लेने का
प्रमुख कारण जर्मनी की नौसेना का शक्तिशाली होना ही था। वह अपनी सुरक्षा में
इंग्लैण्ड को एक ढाल समझता था।
9. समाचार-पत्रों की
भूमिका-
अनेक इतिहासकारों
ने समाचार-पत्रों तथा जनमत को भी विश्व युद्ध के अनुकूल परिस्थिति बनाने के लिये
उत्तरदायी ठहराया है। राजनीतिक तनावों को गुटीय ईष्या और वैचारिक असमानता को
समाचार-पत्रों ने खूब प्रचारित किया। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में तनावपूर्ण
स्थिति उत्पन्न करने के लिये समाचार-पत्रों के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है।
वास्तव में जब विदेश मंत्रालय तथा मन्त्रिमण्डलों के विचार प्रमाण सहित
समाचार-पत्रों में छपते थे तो निःसन्देह इनका प्रभाव किसी भी राष्ट्र के लिये
महत्वपूर्ण होता था। जून 1914 के प्रारम्भ में सैण्ट पीट्सबर्ग से प्रकाशित होने
वाले समाचार-पत्र में प्रमुख पंक्तियाँ थीं- "रूस तैयार है, फ्रांस को भी तैयार रहना
चाहिये।"
इस समाचार की
जर्मनी में तीखी प्रतिक्रिया हुई, आपसी सन्देह को
बढ़ावा मिला। सभी राष्ट्र समाचार-पत्रों के माध्यम से उग्र राष्ट्रीयता की भावना
को प्रकाशित कर रहे थे। ऐसे में युद्ध का वातावरण बनना स्वाभाविक था।
10. यूरोपीय
राष्ट्रों में उचित नेतृत्व न होना-
यूरोप में कोई भी
ऐसा राजनयिक या अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का नेता नहीं था, जिसमें ऐसी वैचारिक
परिपक्वता लक्षित हो पाती, जिससे प्रेरित
होकर अन्य राष्ट्र युद्ध की सम्भावना को टाल देते। ऐसा कोई भी दूरदृष्टा, राष्ट्र को प्रभावशाली
नेतृत्व देने वाला उस युग में नहीं हुआ। उस समय के विख्यात लेखक जार्ज ब्रेन्डीस
ने 1913 में एक लेख में यूरोपीय स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा था कि, "यूरोपीय युद्ध सभी यूरोपीय
राष्ट्रों के लिये अभिशाप सिद्ध होगा, लेकिन इन वर्तमान वर्षों में सभी में यह विश्वास दृढ़ हो
चला है कि युद्ध एक अनिवार्य नियति है और अन्तत: यह न्याय देने वाला सिद्ध होगा।
सही दिशा में
सोचने वाले व्यक्तियों की उस युग में नितान्त कमी थी। इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री
विन्स्टन चर्चिल ने बाद में जर्मनी के शासक कैसर विलियम द्वितीय
की चारित्रिक विशेषता के विषय कहा था कि वह, “नेपोलियन की तरह बनना
चाहता है बिना उसकी तरह युद्ध लड़े वह नेपोलियन के हाव-भाव की नकल करना चाहता है
और म्यान में ही तलवार को चलाना चाहता है।"
वस्तुत: विलियम
द्वितीय जर्मन जाति की सर्वोच्चता को विश्व में सिद्ध करना चाहता था। वह
उत्तेजनात्मक भाषण देना पसन्द करता था. "विश्व में हम जर्मनवासी किसी से
नहीं डरते,
हम केवल ईश्वर से
डरते हैं।" इसी तरह "समुद्र जर्मनी की महानता की अनिवार्य नियति है। हमारा भविष्य
समुद्र में है।
11. यूरोपीय
राष्ट्रों का दो शिविरों में विभाजन-
यूरोपीय
राष्ट्रों का दो शिविरों में बँटवारा प्रथम विश्व युद्ध के पूर्व हो गया था। इसे बिस्मार्क
की ही देन कहा जा सकता है। उसकी सूझ- बूझ से शक्ति सन्तुलन का यूरोप में ताना-बाना
बना रहा। 1879 में आस्ट्रिया जर्मनी में मित्रता स्थापित होने के बाद 1882 में
इटली के सम्मिलित होने से त्रि-राष्ट्र मैत्री, यह पहले शिविर के राष्ट्र थे। दूसरे शिविर की बुनियाद 1894
में फ्रांस रूस की सन्धि के रूप में पड़ी। आंग्ल-रूस समझौते के बाद इसे
त्रि-राष्ट्र सौहार्द कहा जाने लगा।
1912-13 के दौरान
दोनों शिविरों के सदस्यों ने समय-समय पर यूरोप में शान्ति बनाये रखने के लिये
प्रयास किये। लेकिन बिस्मार्क के हटने के बाद कैसर विलियम के कथनों ने उग्रता का
प्रदर्शन किया। अत: जर्मनी के प्रति विशेषतया इंग्लैण्ड में सन्देह और सतर्कता का
वातावरण बन गया। आपसी सूझ-बूझ शिविरों के बीच खतरे में पड़ गयी। इन दोनों गुटों के
सदस्यों में तनाव का परिणाम विश्व युद्ध के रूप में व्यक्त हुआ।
12. युद्ध का तात्कालिक कारण-
साराजीवो
हत्याकाण्ड- आस्ट्रिया और
सर्बिया में आपसी मनमुटाव का इतिहास 1908 ई.से ही विद्यमान था। सर्बियावासी, सर्वस्लाववाद से प्रेरित थे। जून 1914
के अन्त में आस्ट्रिया का युवराज फ्रांसिस फर्डीनेण्ड अपने
साम्राज्य के नये प्रान्त बेस्निया की यात्रा के लिये अपनी पत्नी के साथ
गया। उसका यह कदम प्रजा का सद्भाव प्राप्त करने के उद्देश्य से था। यात्रा के
दौरान कोई भी अशोभनीय घटना नहीं हुई थी।
यात्रा के अन्तिम
दिन 28 जून को युवराज बोस्निया की राजधानी साराजीवो पहुँचा, यह दिन सर्बिया का
राष्ट्रीय दिवस, सैण्ट वाइट्स डे था। बोस्निया के अधिकारी
वर्ग युवराज की सुरक्षा के लिये बहुत चिन्तित नहीं थे। इसी बीच बोस्निया के एक विद्यार्थी
गैवरीलो प्रिंसिप ने राजकुमार की हत्या कर दी। विद्यार्थी प्रिंसिप एक गुप्त
समिति युवा बोस्निया का सदस्य था। यह सर्बिया की 'काला हाथ' नामक समिति का सदस्य नहीं
था। इस समिति ने युवराज की हत्या योजना बनायी थी। 14 जून को इस योजना में भाग लेने
वाले सदस्य सर्बिया से बोस्निया आये थे। युवराज की हत्या उस समय के बोस्निया और
सर्बिया के क्रान्तिकारी समितियों का मिला-जुला प्रयास था। 14 जून को आस्ट्रिया ने
सर्बिया को सबक सिखाने का फैसला किया तथा 23 जून को सर्बिया को यह अल्टीमेटम भेजा
जिसका उत्तर 48 घण्टे के भीतर देने को कहा गया। आस्ट्रिया द्वारा यह कदम इसलिये
उठाया गया था कि सर्बिया इन्हें कभी नहीं स्वीकारेगा। आस्ट्रिया की ये वास्तव में
बड़ी कड़ी शर्त थीं, जिनके सम्बन्ध
में इंग्लैण्ड के विदेश मंत्री सर एडवर्ड ग्रे ने कहा था कि-
"मैंने आज
तक रिसी देश को एक दूसरे स्वतन्त्र देश से ऐसी शर्ते मनवाते नहीं देखा।"
इसका मात्र कारण यह था कि आस्ट्रिया सैनिक युद्ध के लिये छटपटा रहे थे और उनकी यह धारणा थी कि आस्ट्रियन को सर्बिया की शक्ति कुचलने का इससे अधिक अच्छा अवसर प्राप्त नहीं होगा। परिस्थिति से बाध्य होकर सर्बिया ने 12 शर्तों में से 9 शतों को स्वीकार किया और अन्य तीन शर्तों के सम्बन्ध में कुछ आपत्ति अवश्य की, किन्तु उसने आस्ट्रिया को उनकी स्वीकृति के लिये आश्वासन दिया। उसने आस्ट्रिया से यह प्रार्थना की कि यदि वह उसके उत्तर से सन्तुष्ट नहीं है तो वह इस प्रश्न को हेग न्यायालय के समक्ष या अन्य महान् शक्तियों के सम्मेलन के सामने रख दे, जिसका निर्णय सर्बिया को स्वीकृत होगा। आस्ट्रिया के राजनीतिक तथा सैनिक पदाधिकारी युद्ध के लिये इतने अधिक लालायित थे कि उन्होंने उनकी प्रार्थना की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। उसने 28 जुलाई सन् 1914 को युद्ध की घोषण कर अपनी सेनाओं को सर्बिया पर आक्रमण करने का आदेश दिया। इस घटना से ही प्रथम महायुद्ध का श्रीगणेश हुआ।
è यह भी देखें ¦ प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम
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