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राष्ट्रपति के कार्य एवं शक्तियाँ

भारत के राष्ट्रपति के कार्य एवं शक्तियाँ

राष्ट्रपति के कार्य व अधिकारों को अध्ययन की सुविधा के लिए दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- (1) शान्तिकालीन कार्य व अधिकार, (2) संकटकालीन कार्य व अधिकार।

शान्तिकालीन कार्य व अधिकार

सामान्यकाल में राष्ट्रपति के जो कार्य व अधिकार हैं, उनका वर्णन अग्रलिखित शीर्षकों में किया जा सकता है-

1. कार्यपालन व प्रशासन सम्बन्धी कार्य एवं अधिकार-

संविधान के अनुच्छेद 53 के अनुसार संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित है जिसका प्रयोग संविधान के अनुसार वह स्वयं करता है या अपने अधीन अधिकारियों के माध्यम से करता है। इस प्रकार शासन का समस्त कार्य राष्ट्रपति के नाम से होता है तथा सरकार के समस्त निर्णय उसके माने जाते हैं। उसे संघीय शासन से सम्बन्धित सभी मामलों में सूचना पाने का अधिकार है। राष्ट्रपति के कार्य-पालन व प्रशासन सम्बन्धी कार्य व अधिकारों को हम निम्न प्रकार से रख सकते हैं-

bharat ke rashtrapati ki shaktiyan aur karya ki charcha kijiye
राष्ट्रपति के कार्य एवं शक्तियाँ

(i) मन्त्रिपरिषद् का गठन- अनुच्छेद 74 के अनुसार राष्ट्रपति संघ की कार्यपालिका शक्ति के संचालन में परामर्श देने के लिए मन्त्रिपरिषद् का गठन करता है। प्रायः राष्ट्रपति ऐसे व्यक्ति को प्रधानमन्त्री पद पर नियुक्त करता है जो लोकसभा में बहुमत दल का नेता हो। प्रधानमन्त्री के परामर्श पर राष्ट्रपति मन्त्रिपरिषद् के अन्य सदस्यों की नियुक्ति करता है।

(ii) उच्च अधिकारियों की नियुक्ति एवं पदच्युति- राष्ट्रपति महान्यायवादी, नियन्त्रक एवं महालेखा परीक्षक, वित्त आयोग के सदस्यों, संघ लोकसेवा आयोग के अध्यक्षों और अन्य सदस्यों, मुख्य निर्वाचन आयुक्त, अन्य निर्वाचन आयुक्तों, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्यों, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों, राज्यों के राज्यपालों, संघ क्षेत्रों के उपराज्यपालों या प्रशासकों की नियुक्ति कर सकता है। राष्ट्रपति ये नियुक्तियाँ मन्त्रिपरिषद् की सलाह से करता है। राष्ट्रपति इन नियुक्त प्राधिकारियों तथा अधिकारियों को पदमुक्त कर सकता है।

(iii) संघ की इकाइयों के शासन पर नियन्त्रण- केन्द्र-शासित क्षेत्रों के शासन का पूरा दायित्व राष्ट्रपति पर होता है। राज्यों की सरकारों को भी राष्ट्रपति वे निर्देश दे सकता है, जिन्हें वह संसद द्वारा निर्मित विधियों का पालन करने के लिए, संघ की कार्यपालन सम्बन्धी शक्ति के प्रयोग के मार्ग की बाधाओं को दूर करने के लिए और सामरिक महत्त्व के राजमार्गों, रेलमार्गों व संचार साधनों की सुरक्षा के हित की दृष्टि से आवश्यक समझे।

(iv) विभिन्न आयोगों का गठन- राष्ट्रपति को विभिन्न आयोगों के गठन की शक्ति प्रदान की गई है। वह भारत के राज्य क्षेत्र में सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्ग की दशाओं के अन्वेषण करने के लिए, राजभाषा पर प्रतिवेदन देने के लिए, अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन पर प्रतिवेदन देने के लिए तथा राज्यों में अनुसूचित जनजातियों के कल्याण सम्बन्धी क्रियाकलापों पर प्रतिवेदन देने के लिए आयोग का गठन कर सकता है।

(v) सर्वोच्च सेनापति- राष्ट्रपति जल, थल और वायु तीनों सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति होता है। जल, थल एवं वायु के सेनाध्यक्षों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। इस सम्बन्ध में संविधान में व्यवस्था है कि संघ की प्रतिरक्षा सेनाओं की सर्वोच्च कमान राष्ट्रपति में निहित होगी तथा उसका प्रयोग विधि के द्वारा विनियमित होगा।"

2. व्यवस्थापन सम्बन्धी कार्य और अधिकार-

विधायी क्षेत्र में राष्ट्रपति की शक्तियाँ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं । इंग्लैण्ड के सम्राट के समान भारत का राष्ट्रपति भी संघ की संसद का अभिन्न अंग है। अनुच्छेद 74 (1) के अनुसार राष्ट्रपति विधायी शक्तियों का प्रयोग मन्त्रियों को सलाह पर ही कर सकता है। संविधान द्वारा राष्ट्रपति को जो विधायी शक्तियाँ प्रदान की गई हैं, वे निम्नलिखित हैं-

(i) संसद के अधिवेशनों की व्यवस्था- अनुच्छेद 85 के अनुसार, राष्ट्रपति को संसद के दोनों सदनों को आहूत (Summon) करने, सत्रावसान (Progation) करने और लोकसभा को विघटित करने का अधिकार प्राप्त है। राष्ट्रपति यह सभी कार्य मन्त्रिपरिषद् की सलाह पर करता है।

(ii) संसद के सदस्यों का मनोनयन- राष्ट्रपति को राज्यसभा एवं लोकसभा दोनों ही के लिए कुछ सदस्यों के मनोनयन का अधिकार प्राप्त है । संविधान के अनुच्छेद 80 (1) के अनुसार वह राज्यसभा में ऐसे 12 सदस्यों की नियुक्ति करता है; जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और समाज-सेवा जैसे विषयों का विशिष्ट ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव प्राप्त हो। संविधान के अनुच्छेद 331 के अनुसार, राष्ट्रपति को लोकसभा में अधिक से अधिक 2 सदस्य आंग्ल-भारतीय समुदाय के नियुक्त करने का अधिकार प्राप्त है, यदि वह देखे कि उस सम्प्रदाय को लोकसभा में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हुआ है।

(ii) राष्ट्रपति को विशेषाधिकार अथवा वीटों की शक्ति- संविधान के अनुसार किये गये कार्यों तथा परम्पराओं के आधार पर यह माना जाता है कि राष्ट्रपति को निम्नलिखित तीन प्रकार की वीटो शक्तियाँ प्राप्त हैं-

(a) अत्यान्तिक वीटो- जब राष्ट्रपति किसी विधेयक को अनुमति प्रदान नहीं करता तो वह विधेयक समाप्त हो जायेगा। भारत के संविधान में पूर्ण मन्त्रिमण्डलीय दायित्व होते हुए भी इस उपबन्ध को समाविष्ट किया गया है। राष्ट्रपति प्रायः इस शक्ति का प्रयोग गैर-सरकारी विधेयकों को अनुमति प्रदान करने में कर सकता है। सरकारी विधेयकों में ऐसी स्थिति उत्पन्न नहीं हो सकती।

(b) विलम्बनकारी वीटो- जब राष्ट्रपति किसी विधेयक को अनुमति देने से स्पष्ट से इन्कार करने के स्थान पर विधेयक अथवा उसके किसी भाग को पुनर्विचार के लिए वापस कर देता है तो यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति ने विलम्बनकारी वीटो का प्रयोग किया है।

(c) जेबी वीटो- अनुच्छेद 111 के अनुसार यदि राष्ट्रपति किसी विधेयक को वापस करना चाहता है तो वह विधेयक को प्रस्तुत किये जाने के बाद यथाशीघ्र लौटा देगा, संविधान में इसके लिए कोई समय सीमा निश्चित नहीं की गई है। समय सीमा के अभाव में भारत का राष्ट्रपति जेबी वीटो की शक्ति का प्रयोग करता है।

(iv) अध्यादेश जारी करना- अनुच्छेद 123 के तहत राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान की गई है। राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश संसद के विस्तारित काल (संसद का अधिवेशन न होने के समय) में उस समय जारी किया जाता है, जब राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाए कि ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं जिनके अनुसार अविलम्ब कार्यवाही करना आवश्यक है। राष्ट्रपति द्वारा जारी अध्यादेश का प्रभाव मात्र 6 माह तक रहता है, यदि 6 माह के अन्दर संसद द्वारा अनुमोदन न किया जाए तो अध्यादेश स्वतः निष्प्रभावी हो जाता है। यदि संसद के एक सदन का सत्र चल रहा हो तथा दूसरे सदन का सत्र स्थगित हो, तब ही अध्यादेश जारी किया जा सकता है, क्योंकि संसद का एक सदन कोई विधेयक पारित कर उसे कानून बनाने के लिए सक्षम नहीं है।

3. वित्त सम्बन्धी कार्य तथा अधिकार-

भारतीय वित्त के सम्बन्ध में भी राष्ट्रपति को कुछ महत्त्वपूर्ण अधिकार प्राप्त हैं, जो निम्न प्रकार हैं-

(i) बजट का प्रस्तुतीकरण- प्रत्येक वित्तीय वर्ष के प्रारम्भ में संसद की स्वीकृति के लिए बजट प्रस्तुत करना राष्ट्रपति का कार्य है।

(ii) वित्त विधेयक और अनुदान की मांगों के प्रस्तुतीकरण की स्वीकृति- कोई भी वित्त विधेयक अथवा अनुदान की माँग राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति के बिना संसद में प्रस्तुत नहीं की जा सकती।

(iii) आकस्मिक निधि का नियन्त्रण- राष्ट्रपति का नियन्त्रण आकस्मिक निधि पर भी रहता है। वह इस निधि में से संसद की पूर्व स्वीकृति के बिना भी धन के व्यय की स्वीकृति दें सकता है, यद्यपि बाद में उसके लिए संसद की स्वीकृति आवश्यक होती है।

(iv) भारत की संचित निधि सम्बन्धी व्यवस्था- संचित निधि किस प्रकार रखी जाये, उनमें कौनसा धन जमा किया जाये अथवा निकाला जाये, इन तथा ऐसे ही अन्य विषयों के सम्बन्ध में राष्ट्रपति को नियम बनाने का अधिकार है, यदि संसद द्वारा इस सम्बन्ध में कोई नियम न बनाये गये हों।

(v) वित्त आयोग की नियुक्ति- राष्ट्रपति उस वित्त आयोग की नियुक्ति भी करता है जो संघ व राज्यों के बीच करों की आय के वितरण का निर्धारण तथा वित्तीय वयवस्था को दृढ़ बनाने के सम्बन्ध में राष्ट्रपति से अपनी सिफारिशें करता है।

4. न्याय सम्बन्धी कार्य व अधिकार-

न्याय के सम्बन्ध में राष्ट्रपति के कार्य एवं अधिकार निम्न प्रकार हैं-

(i) दण्डित व्यक्तियों को क्षमादान अनुच्छेद 72 के अनुसार राष्ट्रपति को दण्डित व्यक्तियों के दण्ड को स्थगित करने, कम करने या समाप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया है। अपने इस अधिकार का प्रयोग वह उन मामलों में कर सकता है, जिनमें

(1) दण्ड किसी सैनिक न्यायालय द्वारा दिया गया हो,

(2) दण्ड उस किसी विधि के उल्लंघन के लिए दिया गया हो, जो संघ की कार्यपालिका शक्ति के अन्तर्गत आती हो, तथा

(3) दिया हुआ दण्ड मृत्यु-दण्ड हो।

राष्ट्रपति के इस अधिकार के होते हुए भी सैनिक न्यायालयों द्वारा दिए गए दण्ड को स्थगित, कम अथवा समाप्त करने के सैनिक अधिकारियों के अधिकार तथा राज्यपालों के ऐसे ही अधिकार अधिकार अप्रभावित रहेंगे।

(ii) सर्वक्षमा प्रदान करना- राष्ट्रपति किन्हीं विशेष स्थितियों में सर्वक्षमा भी प्रदान कर सकता है, परन्तु इसके लिए उसे संसद की स्वीकृति लेना आवश्यक होता है। यह ध्यान देने की बात है कि भारतीय राष्ट्रपति अपने क्षमादान के अधिकार का प्रयोग मुकदमे के निर्णय के पश्चात् ही कर सकता है।

(iii) सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श- सावधान के 143वें अनुच्छेद के अनुसार उन मामलों में जिनमें राष्ट्रपति यह समझे कि उनमें ऐसे सार्वजनिक महत्त्व का कानून या तथ्य सम्बन्धी प्रश्न निहित है, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय का परामर्श लेना लाभदायक होगा, तो वह उस प्रश्न को सर्वोच्च न्यायालय मामले की उचित सुनवाई के बाद अपनी राय राष्ट्रपति को दे सकता है। उच्चतम न्यायालय की मन्त्रणा माँगना राष्ट्रपति के विवेक एवं निर्णय पर निर्भर है। राष्ट्रपति ने अब तक सर्वोच्च न्यायालय से 10 बार परामर्श माँगा है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने 9 बार परामर्श दिया है, 'अयोध्या विवाद' के प्रसंग में परामर्श देने से सर्वोच्च न्यायालय ने इनकार कर दिया था।

आपातकालीन कार्य एवं शक्तियाँ

भारतीय संविधान के भाग 18 के 9 अनुच्छेद ( अनुच्छेद 352 से 360 तक) आपातकालीन परिस्थितियों से सम्बन्धित है। संविधान के अन्तर्गत तीन प्रकार की आपात दशाओं की व्यवस्था की गई है। इन्हें राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ कहा जाता है। ये इस प्रकार हैं-

1. युद्ध या बाहरी आक्रमण या आन्तरिक विद्रोह या उनका खतरा होने पर,

2. राज्यों में सांविधानिक तन्त्र के विफल होने पर, और

3. वित्तीय संकट की स्थिति में।

1. युद्ध या बाह्य आक्रमण अथवा सशस्त्र विद्रोह के कारण आपातकाल की घोषणा (अनुच्छेद 352)

आपातकाल घोषित किये जाने की विधि- संविधान के 44वें संशोधन के बाद अनुच्छेद 352 की व्यवस्था है कि यदि राष्ट्रपति इस बात से सन्तुष्ट हो कि ऐसा गम्भीर संकट उपस्थित है जिससे युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह अथवा इस प्रकार की आशंका के कारण भारत या उसके किसी भाग की सुरक्षा के लिए खतरा है, तो वह सम्पूर्ण भारत या घोषणा में निर्दिष्ट उसके किसी भाग के सम्बन्ध में आपातकाल की घोषणा कर सकता है। लेकिन इस प्रकार की घोषणा या उसके परिवर्तन सम्बन्धी घोषणा राष्ट्रपति केवल तभी कर सकता है जब प्रधानमन्त्री तथा अन्य मन्त्रिमण्डलीय स्तर के मन्त्रियों से निर्मित मन्त्रिमण्डल का यह निर्णय उसके पास लिखित में भेज दिया जाये कि इस प्रकार की घोषणा जारी कर दी जाए। इस अनुच्छेद के तहत अब तक तीन बार संकटकाल की घोषणा की गई है- (1) 1962 में भारत पर चीन, और (ii) 1971 में भारत पर पाकिस्त का आक्रमण होने की स्थिति में, तथा (ii) 1975 में। इस समय भारत में कोई संकटकाल लागू नहीं है।

आपातकालीन घोषणा के प्रभाव- राष्ट्रीय संकट के व्यापक तथा गम्भीर परिणाम निकलते हैं। इनमें प्रमुख निम्न हैं-

(क) कार्यपालिका सम्बन्धी प्रभाव- इस घोषणा से सारे देश की प्रशासन शक्ति राष्ट्रपति अथवा केन्द्रीय कार्यपालिका के हाथों में केन्द्रित हो जाती है।

(ख) विधायी प्रभाव- संसद सारे देश या उसके किसी भाग के लिए कानूनों का निर्माण कर सकती है।

(ग) वित्तीय प्रभाव- राष्ट्रपति संसद के अनुसमर्थन से संघ और राज्यों के राजस्व विभाजन में परिवर्तन कर सकता है।

(घ) मूल अधिकारों पर प्रभाव- 44वें संविधान संशोधन के बाद अब केवल युद्ध और बाह्य आक्रमण की स्थिति में अनुच्छेद 19 निलम्बित होता है, सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में नहीं। अनुच्छेद 20 तथा 21 आपातकाल में निलम्बित नहीं होते, इस काल में भी न्यायालय बन्दी प्रत्यक्षीकरण आदि लेखों को जारी कर सकता है।

2. राज्यों के संवैधानिक तन्त्र के विफल होने की घोषणा (अनुच्छेद 356)-

यदि किसी राज्य में संवैधानिक तन्त्र विफल हो जाए तो अनुच्छेद-356 के अनुसार राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर सकता है। राज्यों में संवैधानिक तन्त्र की विफलता सम्बन्धी घोषणा की प्रक्रिया इस प्रकार है-

घोषणा के जारी किये जाने की विधि संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार किसी राज्य के राज्यपाल के प्रतिवेदन या अन्य किसी प्रकार से यदि राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाये कि संविधान के अनुसार राज्य के शासन का संचालन नहीं हो सकता, तो राष्ट्रपति इस सम्बन्ध में घोषणा कर सकता है। राष्ट्रपति इस प्रकार की घोषणा संघीय मन्त्रिमण्डल की सिफारिश पर ही कर सकता है तथा संघीय मन्त्रिमण्डल भी ऐसी सिफारिश राज्यपाल के इस आशय के प्रतिवेदन के प्राप्त होने पर ही कर सकता है।

इस सम्बन्ध में राष्ट्रपति को यह विवेकाधिकार प्राप्त है कि वह संघीय मन्त्रिमण्डल की सलाह से सहमत न होने पर अपनी टिप्पणियों के साथ पुनर्विचार हेतु भेज दे। परन्तु यदि संघीय मन्त्रिमण्डल पुनर्विचार के बाद भी अपनी सलाह को पुनः राष्ट्रपति के पास भेज देता है तो राष्ट्रपति को उस पर हस्ताक्षर करने होंगे।

1997 में राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने की गुजराल सरकार की सलाह को तथा सितम्बर, 1998 में बिहार में राष्ट्रपति शासन लगाने की वाजपेयी सरकार की सलाह को पुनर्विचार के लिए अपनी टिप्पणियों के साथ वापस भेज कर अपने इस विवेकाधिकार का उपयोग किया।

इस प्रकार की घोषणा बाद की घोषणा द्वारा संशोधित या समाप्त की जा सकती है।

घोषणा के प्रभाव- राज्यों के संवैधानिक तन्त्र के विफल होने के निम्न परिणाम होते है-

(a) वैधानिक प्रभाव राज्यपाल राष्ट्रपति के अधिकारों के रूप में कार्य करता है । संसद को राज्य सूची पर कानून बनाने का अधिकार (उस क्षेत्र के लिए)प्राप्त हो जाता है।

(b) कार्यपालन सम्बन्धी- कार्यपालन सम्बन्धी समस्त अधिकार गवर्नर तथा राष्ट्रपति के माध्यम से केन्द्र की सरकार के पास आ जाते हैं।

(c) मौलिक अधिकारों का निलम्बन- अनुच्छेद 356 के अन्तर्गत आपात स्थिति लागू होने पर राज्य को यह शक्ति है कि वह अनुच्छेद 19 द्वारा प्रत्याभूत मौलिक अधिकारों को निलम्बित कर सके।

3. वित्तीय आपातकाल की घोषणा (अनुच्छेद 360)-

देश के वित्तीय स्थायित्व के लिए कोई खतरा होने की स्थिति में राष्ट्रपति को वित्तीय आपातकाल घोषित करने का अधिकार प्राप्त है। उससे सम्बन्धित संविधान की व्यवस्था की मुख्य बातें निम्न प्रकार हैं-

वित्तीय आपातकाल घोषित करने की विधि- संविधान के 360 अनुच्छेद की व्यवस्था के अनुसार यदि राष्ट्रपति ऐसी स्थिति के अस्तित्व के विषय में सन्तुष्ट हो जाये, जिसमें भारत अथवा उसके किसी भाग के आर्थिक स्थायित्व अथवा उसकी साख के लिए खतरा उत्पन्न हो गया हो, तो वह इस बात की घोषणा कर सकता है।

घोषणा के प्रभाव- वित्तीय आपातकाल की घोषणा के निम्नलिखित परिणाम होते हैं-

(a) संघ सरकार को राज्यों की सरकारों को वित्तीय मामलों में आर्थिक औचित्य बरतने और उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए अन्य प्रकार के आदेश देने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

(b) उक्त व्यवस्था के अन्तर्गत किसी राज्य की सरकार के अधीन कार्य करने वाले कर्मचारियों के वेतन एवं भत्ते कम करने के आदेश भी दिए जा सकते हैं।

(c) उक्त व्यवस्था के अन्तर्गत राज्य के विधानमण्डल द्वारा पारित वित्त विधेयकों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित किये जाने के आदेश भी दिए जा सकते हैं।

(d) घोषणा के काल में राष्ट्रपति को यह अधिकार होगा कि सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों सहित सरकारी कर्मचारियों के वेतन तथा भत्तों में कमी किए जाने के निर्देश जारी कर सके।

(e) राष्ट्रपति केन्द्र एवं राज्यों के बीच वित्त सम्बन्धी बँटवारे के सम्बन्ध में आवश्यक संशोधन कर सकता है।

(f) मूल अधिकारों के विलम्बन की व्यवस्था इस घोषणा के बारे में भी उसी प्रकार लागू की जा सकती है, जिस प्रकार वह अन्य दो प्रकार की घोषणा के बारे में लागू की जा सकती है।

मिली-जुली सरकारों के संदर्भ में शक्तियाँ एवं स्थिति

मिली-जुली सरकारों में सरकार के निर्माण, उसके जीवन तथा पतन के संदर्भ में भारतीय राष्ट्रपति को अपने विवेक से कार्य करने के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति की भूमिका निष्क्रिय या मात्र औपचारिक प्रधान की न रह कर सरकार के निर्देशक और नियन्त्रक की भी हो जाती है। इसे निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-

1. सहयोगी दल के समर्थन वापस लेने पर उभरी राष्ट्रपति की भूमिका-

मिली-जुली सरकार में अनेक दलों के समर्थन से सरकार लोकसभा में अपना बहुमत हासिल करती है। ऐसी स्थिति में जब सरकार के अन्दर रहते हुए या बाहर रहते हुए कोई सहयोगी दल का नेता राष्ट्रपति को इस आशय का पत्र भेज देता है कि उसने सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया है और अब सरकार अल्पसंख्या में आ गयी है, राष्ट्रपति को भी जब इस बात का अहसास हो जाए कि सरकार का बहुमत अब संदेहास्पद हो गया है, तो वह सरकार से इस परिप्रेक्ष्य में पुनः लोकसभा में बहुमत साबित करने के निर्देश दे सकता है।

2 सरकार के निर्माण में प्रधानमंत्री के चुनाव में राष्ट्रपति की भूमिका

जब लोकसभा के चुनाव के बाद किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता है तो राष्ट्रपति किसे प्रधानमंत्री बनाने के लिए या किस दल के नेता को सरकार निर्माण के लिए आमंत्रित करे; इस सम्बन्ध में संविधान मौन है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति को विशेषाधिकार प्राप्त है कि वह ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त करे जो लोकसभा में अपना बहुमत सिद्ध कर सके। राष्ट्रपति ने इस विशेषाधिकार का आवश्यकतानुसार प्रयोग किया है। 1991,2004 व 2009 के लोकसभा चुनावों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण राष्ट्रपति ने अपने विवेक के आधार पर प्रधानमंत्री पद के लिए उम्मीदवारों को आमन्त्रित किया।

3. न्यायाधीशों की नियुक्ति के क्षेत्र में हस्तक्षेप-

मिली-जुली सरकारों के काल में राष्ट्रपति ने न्यायपालिका के नियुक्ति के अधिकार के क्षेत्र में भी निरन्तर हस्तक्षेप करने की नीति अपना रखी है, जबकि राष्ट्रपति का कार्य उस पर हस्ताक्षर कर अपनी औपचारिक स्वीकृति देना मात्र ही है। 1998 में राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने सर्वोच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों व न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबर्बोधत पत्रावली पर अनावश्यक टिप्पणी लिखकर या उन पर हस्ताक्षर कर भेजने में देरी करके हस्तक्षेप की नीति को जारी रखा। यह तब था जब अक्टूबर, 1998 में सर्वोच्च न्यायालय को संविधान पीठ ने नियुक्ति के क्षेत्र को पूर्णत: सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र स्वीकार कर लिया था।

4. किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने सम्बन्धी सरकार के निर्णय को पुनर्विचार के लिए भेजना-

मिली-जुली सरकार में किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के निर्णय में प्रायः सभी दल पूर्णतः एकमत नहीं हो पाते हैं। इसके अतिरिक्त यह भी आवश्यक नहीं है कि संसद के दोनों सदनों में उसकी पुष्टि हो ही जायेगी; क्योंकि मिली-जुली सरकार में सरकार का बहुमत अत्यधिक अल्प होता है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति अपने संवैधानिक अधिकार के तहत किसी विधेयक को एक बार पुनर्विचार के लिए भेजकर तथा उस पर अपनी शंकाओं की टिप्पणी लिखकर उसे रद्द करवा सकता है या लम्बित करवा सकता है। यह मिली-जुली सरकार में ही संभव है।

5. कार्यवाहक सरकार के कार्य में दखलंदाजी का अवसर-

मिली-जुली सरकारें प्रायः अस्थिरता के रोग से पीड़ित होती हैं और एक सरकार के पतन के बाद चुनावों के बाद दूसरी सरकार के गठन के बीच की अवधि में कार्यवाहक सरकार कार्य करती है। चूँकि वह लोकसभा में हार चुकी थी, इसलिए राष्ट्रपति को उसके कार्य में दखल देने का विवेकसम्मत आधार मिल जाता है। इसके पक्ष में वे यह तर्क देते हैं कि कामचलाऊ सरकार अपनी नीतियों में बड़े बदलाव नहीं कर सकती। इस बात को देखने के लिए राष्ट्रपति को उसे निर्देशित करते रहना पड़ता है।

6. किसी एक दल विशेष के पक्ष में पक्षपात की नीति अपनाना-

मिली-जुली सरकारों की स्थिति में राष्ट्रपति को सक्रिय भूमिका का अवसर उस समय मिलता है, जब किसी दल को लोकसभा सांसदों का स्पष्ट बहुमत नहीं होता तो वह किसी दल के नेता को ऐसा बहुमत सिद्ध करने के लिए कितने दिन का समय देता है। इस सम्बन्ध में राष्ट्रपति के. आर. नारायणन पर अनेक विद्वानों तथा राजनेताओं ने यह आरोप लगाया है कि उन्होंने अप्रेल, 1999 में वाजपेयी मंत्रिमंडल के पतन के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी को बहुमत सिद्ध करने के लिए आवश्यकता से अधिक समय दिया, जबकि पूर्व में ऐसी स्थितियों में किसी भी अन्य नेता को इतना समय नहीं दिया गया। उन पर यहाँ तक आरोप लगा कि "राष्ट्रपति ने फरवरी में ही कांग्रेस मणी सरकार बनाने की भविष्यवाणी की थी।"

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि मिली-जुली सरकारों में राष्ट्रपति को अपनी सक्रिय भूमिका दिखाने के एकदलीय सरकारों की तुलना में अधिक अवसर मिलते हैं।

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