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भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया

भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया

भारतीय संविधान में नम्यता एवं अनम्यता का सामंजस्य पाया जाता है। भारतीय संविधान में इतनी नम्यता रखी गई है कि बदलती हुई परिस्थितियों के साथ इनमें परिवर्तन किया जा सके। लेकिन यह नम्यता सीमाओं में रखी गई है जिससे संवैधानिक आदर्श बने रहें। भारतीय संविधान का एक बुनियादी स्वरूप है जिसे परिवर्तित और नष्ट नहीं किया जा सकता।

भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया का वर्णन संविधान के भाग 20, अनुच्छेद-368 में किया गया है। संविधान में संशोधन की प्रक्रिया की दृष्टि से भारतीय संविधान के अनुच्छेदों को निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

1. संसद के साधारण बहुमत द्वारा-

भारतीय संविधान के कुछ अनुच्छेदों के लिए सामान्य विधि निर्माण की प्रक्रिया द्वारा संशोधन की व्यवस्था की गई है। इन अनुच्छेदों के बारे में संसद के साधारण बहुमत द्वारा पारित होने तथा राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल जाने पर संशोधन किया जा सकता है। भारतीय संविधान में संशोधन की यह सबसे सरल विधि है।

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भारतीय संविधान में संशोधन की प्रक्रिया

इस प्रक्रिया में निम्नलिखित उपबन्ध शामिल हैं-

(i) अनुच्छेद 2, 3, 4- राज्यों की सीमाएँ, क्षेत्रफल व नाम,

(ii) अनुच्छेद 104(3)- संसदीय विशेषाधिकारों की व्यवस्था,

(iii) अनुच्छेद 106- संसद सदस्यों के वेतन, भत्ते,

(iv) अनुच्छेद 169- राज्यों के द्वितीय सदन को समाप्त या सुसज्जित करना, तथा

(v) अनुच्छेद 59(3) एवं 65(3)- राष्ट्रपति, राज्यपालों तथा सर्वोच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों का वेतन।

साधारण विधि द्वारा हो सकने वाले इन संशोधनों में संविधान का लचीलापन स्पष्ट होता है और अब तक इस प्रक्रिया द्वारा संविधान में कई बार संशोधन हो चुके हैं।

2. संसद के विशिष्ट बहुमत द्वारा-

दूसरे वर्ग में संविधान के वे अनुच्छेद आते हैं, जो संसद के विशिष्ट बहुमत द्वारा संशोधित किये जा सकते हैं। इस बारे में संसद के किसी भी सदन में ऐसे विधेयक का प्रस्ताव रखा जा सकता है। यदि संसद का वह सदन कुल सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित व मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के दो-तिहाई मतों से उस विधेयक को पारित कर दे, तो वह दूसरे सदन को भेज दिया जाता है, जहाँ यदि वह उसी प्रकार पारित हो जाता है, तो उसके पश्चात् राष्ट्रपति की (औपचारिक) स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है और वह संविधान का अंग बन जाता है। मौलिक अधिकार, नीति निर्देशक तत्त्व तथा संविधान की अन्य सभी व्यवस्थाएँ, जो प्रथम और तृतीय श्रेणी में नहीं आती, इसी के अन्तर्गत आती हैं।

3. संसद का विशिष्ट बहुमत और राज्य विधान मण्डलों की स्वीकृति के द्वारा-

तीसरे वर्ग में संविधान के वे अनुच्छेद आते हैं, जिनमें संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों द्वारा अपने कुल बहुमत एवं उपस्थित व मतदान में भाग लेने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से विधेयक पारित होना चाहिए तथा इसके बाद उस विधेयक को राज्यों के कुल विधान मण्डलों में से कम से कम आधे द्वारा स्वीकृत किया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया द्वारा अग्रलिखित विषयों से सम्बन्धित अनुच्छेदों में संशोधन किया जा सकता है-

(i) राष्ट्रपति का निर्वाचन,

(ii) राष्ट्रपति के निर्वाचन की पद्धति (अनु. 54 तथा 55),

(iii) संघीय कार्यपालिका शक्ति का विस्तार (अनु.73),

(iv) संघीय न्यायपालिका,

(v) केन्द्र-शासित क्षेत्रों के लिए उच्च न्यायालय,

(vi) राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार (अनु. 162),

(vii) राज्यों के उच्च न्यायालय,

(viii) संघ तथा राज्यों में विधायी सम्बन्ध (भाग 11 का अध्याय 1),

(ix) संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व (अनु. 80-81),

(x) सातवीं अनुसूची में से कोई भी सूची, तथा

(xi) संविधान के संशोधन की प्रक्रिया से सम्बन्धित उपबन्ध (अनु. 368)।

संविधान में संशोधन की यह प्रणाली अत्यन्त जटिल एवं कठोर है, क्योंकि इन अनुच्छेदों में संशोधन से केन्द्र तथा राज्य दोनों के अधिकार क्षेत्र प्रभावित होते हैं। अमेरिका, स्विट्जरलैण्ड और आस्ट्रेलिया की संविधान संशोधन प्रणाली इससे मिलती-जुलती है।

संशोधन प्रक्रिया की मुख्य विशेषताएँ

उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारे संविधान द्वारा विहित संशोधन प्रक्रिया में कुछ ऐसी विशिष्ट बातें हैं जो अन्य देशों के संविधानों में नहीं मिलती हैं; यथा-

(1) कठोर एवं लचीली संशोधन प्रक्रिया-

जब संविधान संशोधन में किसी विशेष बहुमत की अपेक्षा होती है तो उसे कठोर संशोधन प्रक्रिया कहा जा सकता है और जब संशोधन की प्रक्रिया साधारण बहुमत से ही पूरी हो जाती है, उसे लचीली संशोधन प्रक्रिया कहा जाता है। भारतीय संविधान में दोनों प्रकार की व्यवस्थाएँ विद्यमान हैं।

(2) संसद द्वारा संविधान के मूल ढाँचे मे परिवर्तन नहीं-

भारत के संविधान में संशोधन करने में संसद को महत्त्वपूर्ण शक्तियाँ प्रदान की गई हैं, परन्तु उसकी शक्तियाँ असीमित नहीं हैं। केशवचन्द भारती विवाद (1973) में उच्चतम न्यायलय ने यह स्पष्ट कर दिया कि संसद संविधान में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन वह संविधान के मूल स्वरूप में परिवर्तन नहीं कर सकती। उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय संसद की असीमित शक्तियों को नियन्त्रित करता है।

'केशवानंद भारती विवाद' में दिये गये अपने निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय ने 'मिनर्वा मिल्स विवाद' (1980) में दोहराया है। अतः संवैधानिक दृष्टि से आज भी यह निर्णय मान्य है।

(3) संशोधन की शक्ति संसद में निहित-

अनुच्छेद 368 में निहित विशेष प्रक्रिया के के अधीन रहते हुए, हमारे संविधान में संशोधन की शक्ति संसद तथा राज्यों के विधानमण्डलों में निहित है। संविधान के संशोधन के लिए कोई पृथक् निकाय नहीं है।

(4) संयुक्त अधिवेशन का प्रावधान नहीं-

यदि संसद के दोनों सदनों में किसी संविधान संशोधन विधेयक पर गतिरोध पैदा हो जाता है, तो सामान्य विधेयक की प्रक्रिया की तरह इस गतिरोध को समाप्त करने के लिए संयुक्त अधिवेशन की व्यवस्था नहीं है। इस प्रकार अनुच्छेद 102 (1) से यह स्पष्ट होता है कि संयुक्त अधिवेशन की प्रक्रिया सामान्य विधान के विधेयकों पर ही लागू होती है जो संविधान के भाग 5 के अध्याय 2 के अधीन आते हैं। यह संविधान के संशोधन के लिए विधेयकों पर लागू नहीं होती। उनके लिए अनुच्छेद 368 (2) में स्वयं पूर्ण प्रक्रिया है।

(5) संशोधन की प्रक्रिया सामान्य विधेयक की तरह

अनुच्छेद 368 के उपबन्धों के अधीन रहते हुए संसद द्वारा संविधान संशोधन विधेयक उसी प्रकार पारित किये जाएंगे, जैसे- सामान्य विधेयक। दूसरे शब्दों में, वे किसी भी सदन में प्रारम्भ किए जा सकते हैं और अन्य विधेयकों के समान ही संशोधित किए जा सकते हैं। बस अनुच्छेद 368 द्वारा अपेक्षित बहुमत आवश्यक है। इस बहुमत को छोड़कर वे किसी भी अन्य विधेयक के जैसे ही दोनों सदनों द्वारा पारित किये जाने चाहिए।

(6) राष्ट्रपति की पूर्व मंजूरी आवश्यक नहीं-

संविधान के संशोधन के लिए किसी विधेयक को संसद में प्रस्तावित करने के लिए राष्ट्रपति की मंजूरी आवश्यक नहीं है।

(7) जनमत की व्यवस्था नहीं-

भारत में संविधान संशोधन के लिए जनमत-संग्रह की कोई व्यवस्था नहीं की गई है, जैसा कि स्विट्जरलैण्ड के संविधान में विद्यमान है।

(8) संविधान में संशोधन हेतु राज्य विधानमण्डलों के पास पहल की शक्ति नहीं-

संघात्मक व्यवस्थाओं के अन्तर्गत सामान्यतः राज्य विधानमण्डलों को भी संविधान के संशोधन में पहल करने का अधिकार होता है, परन्तु भारतीय संविधान द्वारा राज्य विधानमण्डलों को इस प्रकार का कोई अधिकार नहीं दिया गया है। इसके अतिरिक्त संविधान में संशोधन के सभी प्रस्तावों पर राज्य विधानमण्डलों की पुष्टि आवश्यक नहीं है। ऐसे अनुच्छेद बहुत कम हैं जिनके संशोधन के लिए कम से कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों की स्वीकृति आवश्यक है।

(9) राष्ट्रपति अनुमति देने के लिए बाध्य-

1971 में किए गए अनुच्छेद 368 के 24वें संवैधानिक संशोधन में राष्ट्रपति पर यह बाध्यता डाली गयी है कि विधान मण्डल द्वारा पारित होकर जब संविधान संशोधन उसके समक्ष उपस्थित किया जाये तब वह उस विधेयक को अनुमति प्रदान करे। संक्षेप में, संविधान संशोधन विधेयक की दशा में राष्ट्रपति की स्वीकृति की औपचारिकता बनाए रखी गयी है जिससे यह ज्ञात हो सके कि संशोधन विधेयक किस तारीख से संविधान के भाग के रूप में प्रवृत्त हुआ है। राष्ट्रपति की विधेयक को अस्वीकृत करने की शक्ति छीन ली गयी है।

संशोधन पद्धति की आलोचना

भारतीय संविधान की संशोधन पद्धति की अनेक अस्पष्टताओं और त्रुटियों के कारण निम्न प्रमुख आलोचनाएँ की गई हैं-

(1) राज्य विधानमण्डलों से पुष्टि के लिए समय-सीमा निर्धारित नहीं-

संविधान यह निर्धारित नहीं करता कि संशोधन के तृतीय वर्ग से सम्बन्धित संशोधन विधेयक जब संसद द्वारा राज्य विधान मण्डलों के पास भेजा जाये तो वे कितने समय के अन्दर विधेयक को स्वीकार या अस्वीकार करेंगे। इस प्रकार एक या अधिक राज्यों के विधान मण्डल अनावश्यक विलम्ब काति मार्ग अपनाकर संशोधन कार्य में बाधा डाल सकते हैं।

(2) जनता की प्रत्यक्ष भूमिका नहीं-

लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं के अन्तर्गत सामान्यतः संविधान संशोधन विधेयकों के सम्बन्ध में लोक निर्णय या जनमत संग्रह की व्यवस्था की जाती है, जिससे संसद में बहुमत प्राप्त दल मनमानी न कर सके और संविधान संशोधन के प्रसंग में अन्तिम शक्ति जनता के हाथ में रहे, लेकिन भारतीय संविधान के अन्तर्गत जनता को संविधान संशोधन विधेयक को स्वीकार या अस्वीकार करने की शक्ति प्रदान नहीं की गई है।

(3) राज्य विधानमण्डलों के पास पहल की शक्ति नहीं-

संशोधन प्रक्रिया में राज्यों की भूमिका बहुत कम है, जो संघीय सिद्धान्त की अवहेलना है। संशोधन में पहल करने का अधिकार केवल संसद को ही प्राप्त है और केवल कुछ अनुच्छेदों से सम्बन्धित संशोधनों में ही पुष्टिकरण हेतु कम से कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों की स्वीकृति आवश्यक है।

(4) दोनों सदनों के मतभेदों को दूर करने की व्यवस्था नहीं-

संविधान यह स्पष्ट नहीं करता है कि दोनों सदनों में मतभेद होने की स्थिति में उसे कैसे सुलझाया जाएगा। संविधान, संशोधनों पर मतभेदों की स्थिति में दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन की व्यवस्था नहीं करता, जैसा कि साधारण विधेयकों के सम्बन्ध में करता है। मतभेदों को सुलझाने की व्यवस्था के अभाव में राज्य सभा कुछ उदाहरणों में संविधान संशोधन के कार्य में बाधक बन गयी। उदाहरणार्थ, 1970 ई. में राज्यसभा ने 'राजाओं के प्रिवीपर्स उन्मूलन सम्बन्धी संविधान संशोधन विधेयक' अस्वीकार कर दिया था। 1978 में राज्यसभा ने लोकसभा द्वारा पारित 44वें संवैधानिक संशोधन की 5 धाराओं को रद्द कर दिया था। इसी प्रकार 1989 में राज्यसभा ने 64वें तथा 65वें संविधान संशोधन विधेयकों को अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार राज्यसभा अपनी इस शक्ति के आधार पर जनता की आकांक्षाओं के मार्ग में बाधक बन सकती है।

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