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व्यवस्थापिका के प्रमुख कार्य एवं शक्तियाँ

व्यवस्थापिका के प्रमुख कार्य एवं शक्तियाँ

व्यवस्थापिका का अर्थ-

आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य में कानून के निर्माण तथा प्रशासन की नीतियों के निर्धारण करने वाली संस्थाओं को व्यवस्थापिका नाम से अभिहित किया जाता है। सी. एफ. स्ट्रांग के शब्दों में, "व्यवस्थापिका शासन का वह अंग है, जिसका सम्बन्ध विधि के निर्माण से है।"

अत: सामान्य अर्थ में व्यवस्थापिका कानून निर्माण का ही कार्य नहीं करती है, बल्कि यह अधिकारों से युक्त व्यक्तियों का सामूहिक संगठन है जो विधि-निर्माण के कार्य के साथ-साथ शासन के अन्य दोनों अंगों-कार्यपालिका और न्यायपालिका को आधार प्रदान करता है।

आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य में यद्यपि व्यवस्थापिका के कार्यों को लेकर अत्यधिक मतभेद है तथापि इसके कार्यों को दो प्रमुख शीर्षकों के अन्तर्गत समाहित किया जा सकता है- (क) व्यवस्थापिकाओं के सरकारी कार्य (ख) व्यवस्थापिकाओं के राजनीतिक व्यवस्थागत कार्य। सरकारी कार्यों का स्वरूप जहाँ औपचारिक है, वहीं राजनीतिक व्यवस्था सम्बन्धी कार्यों का स्वरूप अनौपचारिक है। इन कार्यों का संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित हैं-

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व्यवस्थापिका के प्रमुख कार्य एवं शक्तियाँ

(क) व्यवस्थापिकाओं के सरकारी या संवैधानिक कार्य-

(1) कानून निर्माण सम्बन्धी कार्य- व्यवस्थापिका का सबसे प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण कार्य कानूनों का निर्माण करना होता है और सभी प्रकार की शासन व्यवस्थाओं में व्यवस्थापिका के द्वारा यह कार्य किया जाता है। प्रत्येक देश में कानून निर्माण की जो प्रक्रिया होती है, उसके अनुसार ही कानूनों का निर्माण किया जाता है। सभी कानून निश्चित प्रक्रिया में होकर गुजरते हैं। यह विभाग कानून का प्रारूप अर्थात् विधेयक तैयार करता है, उस पर बहस करता है और फिर उन्हें स्वीकृत कर कानून का रूप प्रदान करता है।

(2) संविधान संशोधन का कार्य- प्रायः सभी देशों में व्यवस्थापिका का अन्य प्रमुख कार्य संविधान में संशोधन का कार्य है, यद्यपि विभिन्न देशों में व्यवस्थापिका के द्वारा यह कार्य भिन्न-भिन्न प्रक्रियाओं के आधार पर किया जाता है। जैसे- इंग्लैण्ड में पार्लियामेन्ट' अपने सामान्य बहुमत से ही संविधान में किसी भी प्रकार का संशोधन कर सकती है वही अमेरिका में कांग्रेस अपने दोनों सदनों के दो-तिहाई मतों से संविधान में किसी विशेष संशोधन के लिए प्रस्ताव रख सकती है और वह संविधान के साधारण संशोधन के लिए महासभा बुला सकती है। भारत में संसद दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पास कर संविधान के अधिकांश भाग में संशोधन कर सकती है।

(3) विमर्शात्मक कार्य- वर्तमान समय में व्यवस्थापिका के लिए सामान्यतया जिस 'पार्लियामेन्ट (Parliament) शब्द का प्रयोग किया जाता है वह फ्रेंच शब्द 'पार्लमेन्ट' से लिया गया है। जिसका अर्थ 'विचार के लिए सभा' है। व्यवस्थापिका में विभिन्न समुदायों, स्वार्थों और दृष्टिकोणों के प्रतिनिधियों के मध्य विस्तृत एवं स्वतन्त्र विचार-विमर्श होता है और अपने इस कार्य के आधार पर व्यवस्थापिका को 'लोकमत का दर्पण' कहा जा सकता है। व्यवस्थापिका विचारों के आदान-प्रदान का यह कार्य किन्हीं निश्चित नियमों के आधार पर करती है, जिन्हें 'व्यवस्थापिका के कार्य संचालन के नियम' कहा जा सकता है।

(4) राष्ट्रीय वित्त पर नियन्त्रण- वर्तमान समय में व्यवस्थापिका कानूनों के निर्माण के साथ-ही-साथ राष्ट्रीय वित्त पर नियन्त्रण रखने का कार्य करती है।' बिना प्रतिनिधित्व के कोई कर नहीं (No Taxation without Representation) का सिद्धान्त वित्तीय क्षेत्र में व्यवस्थापिका की सर्वोच्चता का प्रतीक है। वास्तव में जनता की प्रतिनिधि व्यवस्थापिका द्वारा जनता के धन अर्थात् राष्ट्रीय वित्त पर नियन्त्रण रखना स्वाभाविक ही है। अपनी इसी शक्ति के अन्तर्गत व्यवस्थापिका यह निश्चित करती है कि किन साधनों से धन प्राप्त किया जाए और इस धन को जनहितकारी कार्यों पर किस प्रकार से खर्च किया जाये। व्यवस्थापिकाओं की वित्त पर नियन्त्रण स्थापित करने की शक्ति व्यावहारिक दृष्टि से निम्न बातों पर निर्भर करती है-

(i) शासन प्रणाली संसदीय है अथवा अध्यक्षीय।

(ii) संसद में दलीय पद्धति का स्वरूप किस प्रकार का है।

(iii) वित्तीय शक्तियों पर वैधानिक अंकुश है या नहीं।

(iv) कार्यपालिका का विधानमण्डल पर कितना नियन्त्रण है।

(v) द्विसदनात्मक व्यवस्थापिका में दोनों सदनों की वित्तीय शक्तियों की स्थिति क्या है?

(5) प्रशासन पर नियन्त्रण- यद्यपि व्यवस्थापिका प्रशासनिक कार्यों में सीधे तौर पर भाग नहीं लेती; लेकिन प्रशासन पर कुछ न कुछ नियन्त्रण अवश्य ही रखती है। व्यवस्थापिका द्वारा प्रशासन सम्बन्धी कार्य संसदात्मक तथा अध्यक्षात्मक शासन पद्धतियों में भिन्न-भिन्न रूपों में किया जाता है-

(A) संसदीय शासन में- संसदीय शासन में व्यवस्थापिका द्वारा कार्यपालिका पर नियन्त्रण होता है। व्यवस्थापिका द्वारा कार्यपालिका पर यह नियन्त्रण प्रश्न, पूरक प्रश्न, स्थगन प्रस्ताव (adjournment motion), निन्दा प्रस्ताव, बजट में कटौती आदि प्रभावशाली विधियों द्वारा रखा जाता है और अन्तिम रूप में व्यवस्थापिका 'अविश्वास का प्रस्ताव पास कर कार्यपालिका को पदच्युत कर सकती है।

(B) अध्यक्षात्मक शासन में- अमेरिका जैसे अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था में भी व्यवस्थापिका (कांग्रेस) प्रशासन के क्षेत्र में कुछ महत्त्वपूर्ण शक्तियों का उपभोग करती है। प्रथम, राष्ट्रपति द्वारा की गयी सन्धियों और नियुक्तियों के लिए सीनेट, जो कि कांग्रेस का उच्च सदन है, की स्वीकृति आवश्यक है। द्वितीय, सीनेट के द्वारा जहाँ समितियों की नियुक्ति करके प्रशासन के विभिन्न विभागों के कार्यों की जाँच की जा सकती है। इन समितियों का महत्त्व इस बात से स्पष्ट है कि अमेरिका में इन समितियों को "मछली पकड़ने का जाल" (Fishing tuips) कहा जाता है। तृतीय, अमरीकी व्यवस्थापिका युद्ध और शान्ति की घोषणा करती है।

(6) न्याय सम्बन्धी कार्य- अधिकांश देशों में व्यवस्थापिका कुछ न्याय सम्बन्धी कार्य भी करता है। इंग्लैण्ड में तो व्यवस्थापिका का उच्च सदन 'लार्ड सभा' उच्चतम अपील न्यायालय के रूप में ही कार्य करता है। फ्रांस की 'गणतन्त्र परिषद्' (Council of Republic) अमेरिका की कांग्रेस और भारत की संसद को भी उच्च कार्यपालिका पदाधिकारियों पर महाभियोग लगाने और उसका निर्णय करने का अधिकार प्राप्त है।

(7) निर्वाचन सम्बन्धी कार्य- अधिकांश देशों में व्यवस्थापिकाएँ निर्वाचन सम्बन्धी कुछ कार्य भी करती हैं । उदाहरणार्थ, स्विट्जरलैण्ड की व्यवस्थापिका मंत्रिपरिषद् के सदस्यों, न्यायाधीशों तथा प्रधान सेनापति का चुनाव करती है। सोवियत संघ में व्यवस्थापिका मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का निर्वाचन करती है। भारत में भी संघीय व्यवस्थापिका तथा राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा राष्ट्रपति का निर्वाचन किया जाता है।

अत: यह कहा जा सकता है कि व्यवस्थापिका विधि-निर्माण का ही एकमात्र कार्य नहीं करती, वरन् वह अन्य क्षेत्रों में भी प्रभावशाली कार्य करती है। गार्नर ने बिल्कुल ठीक कहा है कि,"अधिकांश देशों में व्यवस्थापिका केवल विधि-निर्माण करने वाला अंग ही नहीं है प्रत्युत साथ ही साथ यह अन्य विभिन्न कार्य भी करती है, जैसे निर्वाचन सम्बन्धी, न्यायिक निर्देशन व कार्यपालिका सम्बन्धी।"

(ख) व्यवस्थापिकाओं के राजनीतिक कार्य-

आधुनिक काल में व्यवस्थापिकाएँ सरकारी और संवैधानिक कार्यों के अतिरिक्त राजनीतिक कार्य भी निष्पादित कर रही हैं। कुछ प्रमुख राजनीतिक कार्य निम्नलिखित हैं-

(1) प्रतिनिधित्व का कार्य- व्यवस्थापिकाएँ सही अर्थों में जन-सम्प्रभुता का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस हेतु समय-समय पर चुनाव कराये जाते हैं। लोकतांत्रिक राज्यों में तो इनको प्रतिनिधि संस्थाएँ कहा ही जाता है, लेकिन साम्यवादी देशों तक में विधानसभाएँ कुछ-न-कुछ प्रतिनिधित्व का कार्य सम्पादित करने के लिए संगठित की जाती हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि व्यवस्थापिकाएँ किसी-न-किसी रूप में प्रतिनिधित्व व्यवस्था की यांत्रिकी संरचना है।

(2) हित-स्वरूपीकरण और हित-समूहीकरण का कार्य- आधुनिक काल में व्यवस्थापिकाओं का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य हित-स्वरूपीकरण का हो गया है। समाज में लोगों के विभिन्न हित होते हैं और उनमें परस्पर विरोध भी होता है। व्यवस्थापिकाएँ इन हितों को पूरा करके या उन हितों की सुरक्षा करके या इनके प्रस्तुत करने वालों को उकसा कर इनमें सामंजस्य स्थापित करती हैं। व्यवस्थापिका में ही समाज के संघर्ष अपना प्रकट रूप लेते हैं और वहाँ ही परस्पर विवादों आदि के द्वारा वे हित अपना स्वरूप लेते हैं। हित स्वरूपीकरण के बाद व्यवस्थापिकाएँ ही इन हितों का समूहीकरण भी करती हैं। हित समूहीकरण से अभिप्राय है- विभिन्न हितों व माँगों में परस्पर सामंजस्य स्थापित करना। इस काम में व्यवस्थापिका को अनुनय, समझौते, समझाने-बुझाने से लेकर विधि निर्माण आदि कार्य करने पड़ते हैं।

(3) राजनीतिक समाजीकरण तथा शिक्षण कार्य- व्यवस्थापिकाओं का एक अन्य राजनीतिक कार्य राजनीतिक समाजीकरण तथा जनता को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करने का है। ला पालोम्बरा ने राजनीतिक समाजीकरण में व्यवस्थापिकाओं की भूमिका को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया है-

(i) प्रतिनिधि व्यवस्थापिकाएँ निरन्तर परस्पर विरोधी उप-संस्कृतियों को गलत ढंग का समाजीकरण करने से रोकती रहती है।

(ii) राजनीतिक व्यवस्था के बारे में सही समाजीकरण की दिशा में दूसरी संस्थाओं की अपेक्षा व्यवस्थापिकाएँ अधिक प्रभावी भूमिका निभाती हैं, क्योंकि प्रतिनिधि संस्था होने के नाते व्यक्ति व समाज उस पर अधिक आस्था रखते हैं।

(iii) व्यवस्थापिका विविध हितों तथा समाज की अनेकताओं को एक स्थान पर मिलने का अवसर उपलब्ध कराती है। इस कारण एकीकरण के माध्यम से व्यवस्थापिका समाजीकरण की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

(iv) व्यवस्थापिकाएँ, विधायकों को विधायक की भूमिका निभाने का प्रशिक्षण देने का कार्य भी करती हैं।

(4) निगरानी-पर्यवेक्षण का कार्य- व्यवस्थापिका की भूमिका देश के रक्षक एवं पहरेदार जैसी है। राजनीतिक व्यवस्था के प्रत्येक उत्तरदायी अंग पर निगरानी रखती है। यह विभिन्न प्रश्नों व प्रस्तावों के माध्यम से कार्यपालिका पर निगरानी तथा राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों पर सतर्कता से विचार-विमर्श द्वारा निगरानी रखी जाती है।

व्यवस्थापिका की शक्तियों में ह्रास के कारण

आधुनिक काल में व्यवस्थापिका की शक्तियों के ह्रास के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

(1) कार्यपालिका के कार्यों तथा प्रभाव में अभूतपूर्व वृद्धि- राज्य के सकारात्मक एवं कल्याणकारी स्वरूप के कारण आधुनिक कार्यपालिकाएँ आज अनेक ऐसे कार्य करने लगी हैं जो वह पहले नहीं करती थीं। कार्यपालिका के कार्यों में वृद्धि के प्रमुख कारण हैं-

(i) कार्यपालिका के नेतृत्व में आर्थिक योजनाओं का निर्माण तथा संचालन किया जाना,

(ii) विदेश नीति और रक्षा नीति के बढ़ते महत्व,

(iii) राष्ट्रीय हितों की रक्षा एवं वृद्धि के नाम पर राष्ट्राध्यक्षों को आम जनता का पर्याप्त सहयोग प्राप्त होना,

(iv) संचार के साधनों का तीव्र गति से विकास के कारण कार्यपालिका अध्यक्ष का सीधे ही आम जनता से बढ़ता सम्पर्क व उसमें उसका बढ़ता प्रभाव आदि।

इन कार्यों की वृद्धि से सरकार के तीन अंगों में कार्यपालिका का महत्व बढ़ गया है। कार्यपालिका के कार्यों की वृद्धि की तुलना में व्यवस्थापिका के कार्यों में कम वृद्धि हुई है। विधान निर्माण, आर्थिक नियोजन एवं योजनाओं का संचालन वर्तमान में कार्यपालिका का प्रमुख दायित्व बन गया है। आधुनिक समय में अधिकांश विधेयक प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कार्यपालिका द्वारा ही प्रस्तुत किये जाते हैं।

(2) प्रदत्त व्यवस्थापन की प्रथा- के. सी. व्हीयर ने लिखा है कि "एक क्षेत्र में कार्यपालिका ने व्यवस्थापिका के कार्य का काफी भाग अपने हाथ में ले लिया है और यह क्षेत्र हैकानून या नियम बनाने का।" प्रदत्त व्यवस्थापन की प्रथा के अन्तर्गत यह हो रहा है। व्यवस्थापिका किसी विषय में आधारभूत कानून को पारित कर देती है, किन्तु कानून की बारीकियों एवं विस्तार की बातों को छोड़ देती है। इस कार्य को कार्यपालिका के विभिन्न विभाग करते हैं। इसी को प्रदत्त व्यवस्थापन की प्रथा कहते हैं। इस प्रथा के चलते विधानमण्डल सारे या कम से कम सभी महत्त्वपूर्ण कानून बनाने का कार्य भी नहीं करते हैं। अब व्यवहार में कार्यपालिकाएँ ही अनेक कानून प्रदत्त व्यवस्थापन की प्रथा के अन्तर्गत बनाने लगी हैं। इस प्रकार प्रदत्त व्यवस्थापन की प्रक्रिया के माध्यम से कानून निर्माण के कार्य का एक बड़ा भाग व्यवस्थापिका के हाथ से निकलकर कार्यपालिका के हाथ में चला गया है।

(3) राष्ट्रीय वित्त के नियंत्रण में कमी- कार्यपालिका राष्ट्रीय आय-व्यय का विवरण आर्थिक बजट के रूप में व्यवस्थापिका के सामने रखती है और व्यवस्थापिका को इसे स्वीकृत या अस्वीकृत या संशोधित करने का अधिकार होता है। किन्तु व्यवहार में व्यवस्थापिका कार्यपालिका द्वारा प्रस्तुत बजट को पारित करने के लिए बाध्य होती है क्योंकि कार्यपालिका अपने बहुमत द्वारा इसे व्यवस्थापिका से पारित कराने में समर्थ होती है। इस प्रकार राष्ट्रीय वित्त पर व्यवस्थापिका का नियंत्रण नाममात्र का ही रह गया है।

(4) रेडियो और टेलीविजन का वाद-विवाद के मंच के रूप में विकास- राबर्ट सी. बोन के मतानुसार, "रेडियो और टेलीविजन अन्य सभी तत्वों में एक ऐसा तत्व है जिसने कार्यपालिका अध्यक्ष को करोड़ों व्यक्तियों के सामने लाकर खड़ा कर दिया है।" रेडियो तथा टी.वी. के विकास के बाद, अब कार्यपालिका संसद की परवाह किये बिना सीधा जनसम्पर्क व जनता से आमना-सामना कर सकती है।

(5) व्यावसायिक और व्यापारिक संगठनों का विकास- ट्रेड यूनियनों, व्यावसायिक संगठनों व हित समूहों ने प्रशासन से अपने सदस्यों की समस्याओं और शिकायतों को लेकर सीधे बातचीत करना प्रारम्भ कर दिया है। पहले इन्हें इसके लिए 'व्यवस्थापिका के माध्यम' की आवश्यकता होती थी, लेकिन अब सीधे बातचीत की प्रक्रिया के अन्तर्गत कार्यपालिका, व्यवस्थापिका के बाहर ही सब समझौते कर लेती है और व्यवस्थापिका के अन्दर तो तैयार की हुई बात पेश की जाती है, जिस पर 'रबर की मोहर' लगाने का सा काम ही उसके लिए बचा रहता है। ऐसे समझौतों पर कार्यपालिका मामले की नाजुकता के नाम पर व्यवस्थापिका से पुष्टि करा लेती है। इस तरह व्यवस्थापिका पृष्ठभूमि में धकेल दी जाती है और निर्णय प्रक्रिया में कार्यपालिका ही सर्वेसर्वा बन जाती है। अतः स्पष्ट है कि इन संगठनों के विकास ने कार्यपालिका के हाथ मजबूत किये हैं और व्यवस्थापिका को पृष्ठभूमि में धकेलकर कमजोर किया है।

(6) विशेषज्ञों की परिषदों और सलाहकार समितियों का विकास- हर मंत्रालय में या विभाग में विशेषज्ञों के संगठन और संस्थाएँ होती हैं। विधेयकों का प्रारूप तैयार करने से लेकर समिति स्तर तक विषय विशेष पर इनकी सलाह ली जाती है और उसके बाद ही सम्बन्धित विषय, विधानमण्डल में अनुमोदन हेतु प्रस्तुत किया जाता है। अगर विधायक उस पर प्रश्न करते हैं या उसमें संशोधन प्रस्तुत करते हैं तो उन्हें यह कहकर हताश कर दिया जाता है कि इस पर विशेषज्ञों, सलाहकारों और सम्बन्धित विभागों द्वारा बारीकी से विचार और इसकी छानबीन की जा चुकी है। इससे सम्बन्धित सभी पक्षों के विचार भी जान लिए गए हैं।

इस प्रकार व्यवस्थापिका के सामने ऐसे प्रस्तावों या विधेयकों को अनुमोदन करने के अलावा कोई मार्ग नहीं रह जाता है।

निष्कर्ष-

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि आज व्यवस्थापिकाएँ उतनी प्रभावी नहीं रहीं, जितनी पहले थीं। ला पालोम्बरा ने लिखा है कि, "व्यवस्थापिकाओं में कमियाँ या पतन का बहुत-कुछ कारण इन संस्थाओं के द्वारा तेजी से बदलती सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सरकारी परिस्थितियों व वातावरण से अनुकूलन नहीं करना है।" आज भी व्यवस्थापिका की उतनी ही सार्थकता है, जितनी पहले थी क्योंकि व्यवस्थापिकाएँ वाद-विवाद का आधिकारिक मंच है।

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