भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका
भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-
1. जाति और निर्वाचन-
भारत के सभी राजनीतिक दल और उनके नेता ऊँचे स्वर में जातिवाद की राजनीति का विरोध करते रहते हैं, लेकिन कांग्रेस और साम्यवादी दलों सहित सभी दल जातिग्रस्त हैं। भारत में निर्वाचन प्रणाली संयुक्त है, फिर भी निर्वाचनों में प्रत्याशियों में चयन के लिए जाति एक प्रमुख तत्त्व है। प्रत्येक दल निर्वाचन क्षेत्र की विभिन्न जातियों की संख्या को ध्यान में रखते हुए उम्मीदवारों का चयन करता है।
निर्वाचन में जातीय भावनाओं को उभारना
गैर-कानूनी है,
परन्तु फिर भी अपने-अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए राजनीतिक
दल जातीयता के आधार पर ही चुनाव प्रचार करते हैं, मतदाताओं को प्रायः जाति की शपथ दिलाई जाती है।
2. जातिगत आधार पर
संरक्षण-
भारतीय संविधान के अन्तर्गत जातिगत
आधार पर संरक्षणों की व्यवस्था की गई है। लोकसभा और विधानसभाओं के लिए जातिगत
आरक्षण की व्यवस्था प्रचलित है, केन्द्र व राज्यों की सरकारी नौकरियों एवं
पदोन्नति के लिए जातिगत आरक्षण का प्रावधान है। मेडिकल एवं इंजीनियरिंग कॉलेजों
में विद्यार्थियों की भर्ती हेतु आरक्षण है।
3. जाति और राजनीतिक
पद–
मन्त्रिमण्डलों का निर्माण भी, विशेषकर
राज्यीय स्तर पर जातीय भावनाओं से प्रभावित रहा है। जब किसी जाति को मन्त्रिमण्डल
में प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हुआ या जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं
मिला, तो उस जाति के विधायकों ने पृथक् बैठकों द्वारा गुटबन्दी को जन्म दिया
और मन्त्रिमण्डल के अस्तित्व को अस्थिर बना दिया। मन्त्रिमण्डलों के
अतिरिक्त उच्च राजनीतिक पदों के लिए भी जातीय भावनाओं का ध्यान रखा गया है। अल्पसंख्यकों
(विशेषतया मुसलमानों) को प्रतिनिधित्व देने के लिए सत्तारूढ़ दल विशेष रूप से
ध्यान रखता है। इस तथ्य को धर्मनिरपेक्षता और जातीय तुष्टिकरण दोनों रूपों
में देखा जा सकता है;
राष्ट्रपति पद के लिए प्रत्याशियों के
चयन में भी यह तत्त्व विद्यमान रहा है।
भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका |
4. जातिगत आधार पर
मतदान व्यवहार-
भारत में चुनाव अभियान में जातिवाद को साधन
के रूप में अपनाया जाता है और प्रत्याशी जिस निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव लड़ रहा
है, उस निर्वाचन क्षेत्र में जातिवाद की भावना को प्रय: उकसाया जाता है
ताकि सम्बन्धित प्रत्याशी की जाति के मतदाताओं का पूर्ण समर्थन प्राप्त किया जा
सके।
मंडल आयोग के 27% आरक्षण के निर्णय के
बाद 1990-91 से समाज जाति के आधार पर राजनेताओं द्वारा दो भागों में बाँटा
जा रहा है और गाँवों एवं शहरों में जाति-युद्ध सा छिड़ गया है। राजनीतिक पार्टियाँ
सिर्फ एक चुनावी मुद्दे पर बात करने लगी हैं- पिछड़े बनाम अगड़े का। 1993 तथा 1996
के उत्तर प्रदेश के चुनाव में तथा 1998,99, 2004, 2009, 2014
एवं 2019 के लोकसभा चुनावों में जातिगत राजनीति को अच्छी सफलता मिली है
5. जाति पर आधारित
राजनीतिक संगठन-
भारत के प्रत्येक राज्य और अखिल भारतीय स्तर पर भी, जाति
पर आधारित राजनीतिक संगठन हैं। तमिलनाडु टायलर्स पार्टी, महाराष्ट्र
में मराठों की 'कृषक-मजदूर पार्टी'
और दलित वर्गों की 'रिपब्लिकन पार्टी', गुजरात
की क्षत्रिय सभा,
राजस्थान की राजपूत सभा और जाट सभा, केरल
की नायर सर्विस सोसाइटी तथा दलितों की बहुजन समाज पार्टी आदि इस प्रकार के
संगठन हैं, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति को प्रभावित करते हैं। पंजाब का
अकाली दल और अखिल भारतीय मुस्लिम लीग विशुद्ध साम्प्रदायिक दल हैं जो खुले रूप से राजनीति
तथा चुनावों में भाग लेते हैं।
6. भारतीय राज्यों
में जातिगत तत्त्व-
भारतीय संघ के लगभग सभी राज्यों की राजनीति
में जातिगत तत्त्वों की भूमिका है, लेकिन आन्ध्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, उत्तर
प्रदेश, बिहार, राजस्थान और हरियाणा में इनका प्रभाव बहुत रहा है। बिहार उन राज्यों में है, जहाँ
सबसे पहले जाति का राजनीतिकरण हुआ। वहाँ यादवों, ब्राह्मणों, राजपूतों, कायस्थों
और आदिवासियों के बीच सत्ता के लिए तीव्र संघर्ष की स्थिति विद्यमान है।
राजस्थान में राजपूतों और जाटों तथा
हरियाणा में अहीर,
जाट,
राजपूत, ब्राह्मण, शैव और दलित वर्ग
प्रतिद्वन्द्वी राजनीतिक शक्तियों के रूप में कार्य कर रहे हैं। गुजरात में पाटीदार
और अनाविल, महाराष्ट्र में ब्राह्मण, मराठा और महार तथा केरल में एजवा
और नायरों के बीच राजनीतिक द्वन्द्व है। आन्ध्रप्रदेश और कर्नाटक की तो समस्त
राजनीति को ही क्रमशः कम्मा व रेड्डी और लिंगायत व वोकलिंग द्वन्द्व के सन्दर्भ
में समझा सकता है। मध्यप्रदेश, असम और उड़ीसा में कांग्रेस और
गैर-कांग्रेसी दलों की जोड़-तोड़ में आदिवासी कबीलों का हाथ रहा है। वामपन्थी
और साम्यवादी दल भी जाति के आधार पर की जाने वाली अपील से मुक्त नहीं हैं।
7. जातिवाद से
आच्छादित राजनीति-
प्रो. एम.एन. श्रीनिवास ने
लिखा है,
"शिक्षित भारतीयों में यह सुविस्तृत धारणा है कि जाति अपनी
अन्तिम सांस ले रही है और नगरों में रहने वाले पश्चिमी शिक्षा प्राप्त उच्च वर्गों
के सदस्य इसके बन्धन से मुक्त हैं, परन्तु ये दोनों धार-14 गलत
हैं। ये लोग भोजन सम्बन्धी प्रतिबन्धनों का चाहे अनुसरण न करते हों, परन्तु
इसका यह अर्थ नहीं कि वे जाति के बन्धनों से पूर्णतः मुक्त हैं। आश्चर्यजनक
सन्दर्भो में वे अपने जातीय व्यवहारों को प्रदर्शित करते हैं।"
8. जाति की
सकारात्मक भूमिका-
सामान्यतया भारतीय राजनीति में जाति के
प्रभाव की तीव्र आलोचना की जाती रही है और इसे राष्ट्रीयता के लिए घातक समझा जाता
रहा है, लेकिन इसका एक अन्य पक्ष भी है । एक ओर तो जाति ने समाज को टुकड़ों में विभक्त
करने वाले तत्त्व की भूमिका अदा की है, तो दूसरी ओर इसने संयुक्त
करने वाले तत्त्व की भी भूमिका अदा की है। भारतीय समाज में जाति
प्रभावपूर्ण सम्पर्क-सूत्र का कार्य और नेतृत्व और संगठन को आधार
प्रदान करती है। यह उन व्यक्तियों को भी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में भाग
लेने की क्षमता प्रदान करती है जो निम्न जातियों के कहे जाते हैं।
रजनी कोठारी के शब्दों में, "कुल मिलाकर जाति और जातीय संगठनों ने भारतीय राजनीति में वही भूमिका
निभाई है, जो पश्चिमी देशों में विभिन्न हितों व वर्गों के संगठनों ने।"
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह कहा जा सकता है कि "जाति भारतीय राजनीति में सबसे अधिक प्रभावशाली तत्त्व है।"
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